________________
परिशिष्ट
६१७
त्रिकाली ध्रुवतत्त्व मानते हैं। अधिक से अधिक उन्हें उक्त योग और उपयोग का कर्ता भले कहा जाये, पर वे टीकारूप परद्रव्य के परिणमन के कर्ता तो हैं ही नहीं
इति श्रीमदमृतचन्द्राचार्यकृता समयसारव्याख्या आत्मख्यातिः समाप्ता ।
माला तो फूलों से बनती है, माली से नहीं; माला तो फूल ही बनाते हैं, माली नहीं। हाँ, माला के बनने में माली का योग और उपयोग निमित्त अवश्य होता है, कर्ता नहीं। यह बात अवश्य है कि माली माला के निर्माण संबंधी अपने योग और उपयोग का कर्ता है |
इसीप्रकार यदि यह टीका शब्दरूप फूलों की अतिव्यवस्थित माला ही है तो आचार्य अमृतचन्द्र अत्यन्त सुघड़ माली हैं। जिसप्रकार माली अपने योग और उपयोग का कर्ता है; उसीप्रकार आचार्य अमृतचन्द्र भी अपने योग और उपयोग के कर्ता हो सकते हैं; पर वे रागमिश्रित उपयोग का कर्तृत्व स्वीकार करने को भी तैयार नहीं हैं; क्योंकि वे उसे अपना कर्तव्य नहीं मानते। वे शुद्धोपयोग क्रिया को ही एकमात्र कर्तव्यरूप में स्वीकार करते हैं ।
प्रशस्ति के अन्तिम पद में भी वे अपनी पर्याय की प्रशस्ति नहीं करते हैं, अपने द्रव्यस्वभाव की प्रशस्ति ही करते हैं। प्रशस्ति के पद में भी वे उसी तत्त्व का प्रतिपादन करते दिखाई देते हैं कि जिसका उन्होंने सम्पूर्ण आत्मख्याति में किया है।
ऐसे भी अनेक धर्मात्मा ज्ञानी प्राप्त होते हैं; जो प्रशस्ति में निश्चय की बात करने के उपरान्त अपना व्यावहारिक परिचय भी देते हैं। वे कोई गलती करते हैं ऐसा मैं नहीं मानता; क्योंकि इसके बिना इतिहास भी कैसे सुरक्षित रहेगा; पर मैं यह अवश्य कहना चाहता हूँ कि व्यावहारिक परिचय के समय भी आचार्य अमृतचन्द्र ने नाम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं लिखा; वह भी इस रूप में कि इस टीका में अमृतचन्द्र का कुछ भी कर्तव्य नहीं है । यह बात कहने में सहजभाव से नाम आ गया है । निश्चयनय से टीका का कर्ता किसी व्यक्ति को कहना मोह में नाचना है, मिथ्या मान्यता है। यह बात उक्त पंक्तियों में अत्यन्त स्पष्ट है। उक्त कथन को मात्र औपचारिक कथन न मानकर उसमें प्रतिपादित तत्त्व की गहराई जानना ही श्रेयस्कर है।
-
समयसार तो सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार की समाप्ति के साथ ही समाप्त हो गया था, अब यहाँ आत्मख्याति टीका भी समाप्त हो रही है। परिशिष्ट भी टीका का ही अंग है। वह भी समाप्त हो गया है।
इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्दकृत समयसार की आचार्य अमृतचन्द्रकृत आत्मख्याति नामक संस्कृत टीका समाप्त होती है और इसके साथ ही ज्ञायकभाव प्रबोधिनी हिन्दी टीका भी समाप्त होती है ।
अन्तिम भावना ( कुण्डलिया )
रहे निरन्तर चित्त में, चिन्तन बारम्बार । आत्मख्याति टीका सहित, समयसार का सार ।। समयसार का सार त्रिकाली ध्रुव परमातम । जीवन का आधार बने कारण परमातम ।। उसमें ही नित रहे निरन्तर मेरा अन्तर । केवल ज्ञायकभाव चित्त में रहे निरन्तर ।।
...