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परिशिष्ट
६१५ तत्त्वोलब्धि है और जिसकी ज्योति अत्यन्त नियमित है - ऐसा यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर चैतन्यचमत्काररूप भगवान आत्मा जयवंत वर्तता है।।
(शार्दूलविक्रीडित ) यस्माद्वैतमभूत्पुरा स्वपरयोर्भूतं यतोऽत्रान्तरं रागद्वेषपरिग्रहे सति यतो जातं क्रियाकारकैः । भुंजाना चयतोऽनुभूतिरखिलंखिन्ना क्रियायाः फलं
तद्विज्ञानघनौघमग्नमधुना किंचिन्न किंचित्किल ।।२७७।। जो अचल चेतनास्वरूप आत्मा में आत्मा को अपने आप ही निरन्तर निमग्न रखती है, जिसने मोह का नाश किया है; जिसका स्वभाव प्रतिपक्षी कर्मों से रहित है, जो निर्मल और पूर्ण है; ऐसी यह उदय को प्राप्त अमृतचन्द्र ज्योति, अमृतमयचन्द्रमा के समान ज्ञानज्योति, आत्मज्योति सब ओर से जलती रहे, प्रकाशित रहे।
प्रथम कलश में लोकालोक को जानकर भी स्वयं में सीमित रहनेवाले आत्मा के जयवंत वर्तने की बात की है तो दूसरे छन्द में अमृतमय चन्द्रमा के समान केवलज्ञानज्योति के निरन्तर प्रकाशित करने की प्रार्थना की गई है।
दूसरे छन्द में सहज ही आचार्य अमृतचन्द्र के नाम का भी उल्लेख हो गया है। हो सकता है आचार्यदेव ने यह प्रयोग बुद्धिपूर्वक किया हो।
अब आचार्यदेव एक छन्द में इस बात की चर्चा करते हैं कि वे स्वयं अथवा कोई भी ज्ञानी जीव अनादि से कैसा था और आत्मानुभूति होने पर कैसा हो जाता है। कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है
(हरिगीत ) गतकाल में अज्ञान से एकत्व पर से जब हुआ। फलरूप में रस-राग अर कर्तृत्व पर में तब हुआ। उस क्रियाफल को भोगती अनुभूति मैली हो गई।
किन्तु अब सद्ज्ञान से सब मलिनता लय हो गई।२७७।। पहले जिस अज्ञान से स्व और पर का द्वैत हआ अर्थात् स्व और पर में मिश्रितपने का भाव हुआ; इसकारण स्वरूप में अन्तर पड़ गया अर्थात् संयोगरूप बंधपर्याय ही निजरूप भासित होने लगी और राग-द्वेष उत्पन्न होने लगे तथा कर्तृत्वादि भाव जाग्रत हो गये, कारकों का भेद पड़ गया। कारकों के भेद उत्पन्न होने पर क्रिया के समस्त फलों को भोगती हुई अनुभूति मैली हो गई, खिन्न हो गई। अब वही अज्ञान ज्ञानरूप में परिणत हो गया, आत्मानुभूति सम्पन्न हो गया और अज्ञान के कारण जो कुछ भी उत्पन्न हो रहा था, अब वह वस्तुतः कुछ भी नहीं रहा।
इसप्रकार हम देखते हैं कि उक्त कलश में आचार्यदेव अपनी विगत अवस्थाओं को याद करते हैं और उसकी तुलना अपनी आज की अवस्था से करते हैं।