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समयसार
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इसकी भावना निरन्तर भाते रहने का आशय मात्र इतना ही नहीं है कि हम इस वाक्यखण्ड को जीभ से दुहराते रहें; अपितु यह है कि हम द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से अखण्ड द्रव्यार्थिकनय
(शालिनी) योऽयं भावोज्ञानमात्रोऽहमस्मि ज्ञेयो ज्ञेयज्ञानमात्रःस नैव। ज्ञेयो ज्ञेयज्ञानकल्लोलवल्गन् ज्ञानज्ञेयज्ञातृमद्वस्तुमात्रः ।।२७१।।
(पृथ्वी) क्वचिल्लसति मेचकं क्वचिन्मेचकामेचकं क्वचित्पुनरमेचकं सहजमेव तत्त्वं मम । तथापि न विमोहयत्यमलमेधसा तन्मनः
परस्परसुसंहतप्रकटशक्तिचक्रं स्फुरत् ।।२७२।। की विषयभूत आत्मवस्तु को पहिचानने और उसमें ही अपनापन स्थापित कर उसको निरन्तर अपने उपयोग का विषय बनाने का सार्थक पुरुषार्थ करें।
इसके उपरान्त ज्ञानमात्र ज्ञायकभाव का स्वरूप स्पष्ट करते हुए अनेक कलश लिखे गये हैं; जिनमें पहले कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(रोला) परज्ञेयों के ज्ञानमात्र मैं नहीं जिनेश्वर । ___मैं तो केवल ज्ञानमात्र हँ निश्चित जानो।। ज्ञेयों के आकार ज्ञान की कल्लोलों से।।
परिणत ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेयमय वस्तुमात्र हूँ।।२७१।। जो यह ज्ञानमात्रभाव रूप मैं हूँ, उसे ज्ञेयों के ज्ञानमात्ररूप नहीं जानना चाहिए; क्योंकि मैं तो ज्ञेयों के आकाररूप होनेवाली ज्ञान की कल्लोलों के रूप में परिणमित होता हुआ ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता - इन तीनोंमय एकवस्तु हूँ- ऐसा जानना चाहिए।
इसप्रकार इस कलश में मात्र इतना ही कहा गया है कि आत्मा की सत्ता या सीमा मात्र पर को जानने मात्र तक सीमित नहीं है, अपितु वह तो स्वपरप्रकाशक ज्ञानपर्यायरूप से परिणमित ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेयरूप है। स्वपर को जानना उसका स्वयं का स्वभाव है, उसमें पर का या परज्ञेयों का कुछ भी नहीं है। __ अब इसी भगवान आत्मा के अनेकान्तात्मक स्वरूप को स्पष्ट करनेवाले तीन छन्द आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं, जिनमें से प्रथम का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(रोला) अरे अमेचक कभी कभी यह मेचक दिखता।
कभी मेचकामेचक यह दिखाई देता है।