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परिशिष्ट
६१३ अनंत शक्तियों का समूह यह आतम फिर भी। दृष्टिवंत को भ्रमित नहीं होने देता है।।२७२।।
(पृथ्वी ) इतो गतमनेकतां दधदितः सदाप्येकतामित: क्षणविभंगुरं ध्रुवमित: सदैवोदयात् । इतः परमविस्तृतं धृतमित: प्रदेशैर्निजैरहो सहजमात्मनस्तदिदमद्भुतं वैभवम् ।।२७३।। कषायकलिरेकत: स्खलति शांतिरस्त्येकतो भवोपहतिरेकतः स्पृशति मुक्तिरप्येकतः। जगत्त्रियमेकतः स्फुरति चिच्चकास्त्येकतः
स्वभावमहिमात्मनो विजयतेऽद्भुतादद्भुतः ।।२७४।। मेरे आत्मतत्त्व का ऐसा ही स्वभाव है कि कभी तो वह मेचक (अनेकाकार -अशुद्ध) दिखाई देता है और कभी अमेचक (एकाकार-शुद्ध) दिखाई देता है तथा कभी मेचकामेचक (दोनोंरूप) दिखाई देता है; तथापि परस्पर सुग्रथित प्रगट अनंत शक्तियों के समूह रूप से स्फुरायमान वह मेरा आत्मतत्त्व निर्मल बुद्धिवालों के मन को विमोहित नहीं करता, भ्रमित नहीं करता।
(रोला) एक ओर से एक स्वयं में सीमित अर ध्रुव ।
अन्य ओर से नेक क्षणिक विस्तारमयी है।। अहो आतमा का अद्भुत यह वैभव देखो।
जिसे देखकर चकित जगतजन ज्ञानी होते॥२७३।। एक ओर से शान्त मुक्त चिन्मात्र दीखता।
अन्य ओर से भव-भव पीड़ित राग-द्वेषमय ।। तीन लोकमय भासित होता विविध नयों से।
अहो आतमा का अद्भुत यह वैभव देखो।।२७४।। अहो ! आत्मा का तो यह सहज अद्भुत वैभव है कि एक ओर से देखने पर अनेकता को प्राप्त है और एक ओर से देखने पर सदा ही एकता को धारण किये रहता है; एक ओर से देखने पर क्षणभंगुर है और एक ओर से देखने पर सदा उदयरूप होने से ध्रुव है; एक ओर से देखने पर परम विस्तृत है और एक ओर से देखने पर अपने प्रदेशों में ही सीमित रहता है।
एक ओर से देखने पर कषायों का क्लेश दिखाई देता है और एक ओर से देखने पर अनंत शान्ति दिखाई देती है। एक ओर से देखने पर भव की पीड़ा दिखाई देती है और एक ओर से देखने पर मुक्ति भी स्पर्श करते दिखाई देते हैं। एक ओर से देखने पर तीनों लोक स्फुरायमान