SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 630
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट ६११ खंड-खंड होकर खण्डित नहीं मैं। एकान्त शान्त चिन्मात्र अखण्ड हँ मैं ।।२७०।। न द्रव्येण खंडयामि, न क्षेत्रेण खंडयामि, न कालेन खंडयामि, न भावेन खंडयामि; सुविशुद्ध एको ज्ञानमात्रो भावोऽस्मि । स्याद्वाद द्वारा प्रदीप्त जगमगाते तेजवाले एवं शुद्धस्वभाव की महिमा सम्पन्न प्रकाश जब मुझमें उदय को प्राप्त होता है तो बंध-मोक्ष के मार्ग में पड़नेवाले अन्य भावों से मुझे क्या लेनादेना ? मुझे तो नित्य उदित रहनेवाला मेरा यह स्वभाव ही स्फुरायमान हो। अनेकप्रकार की अनंतशक्तियों का समुदाय यह आत्मा नयों की दृष्टि से खण्ड-खण्ड किये जाने पर तत्समय ही नाश को प्राप्त होता है। इसलिए मैं तो ऐसा अनुभव करता हूँ कि जिसमें यद्यपि खण्डों का निराकरण नहीं किया गया है; तथापि जो अखण्ड है, एकान्त शान्त है और अचल है - ऐसा चैतन्यमात्र भाव ही मैं हूँ। उक्त कलशों में यही कहा गया है कि जब साध्यभाव और साधकभाव मुझमें ही हैं, मेरे ही परिणमन में हैं; तब मुझे अन्य पदार्थों से क्या प्रयोजन है? तात्पर्य यह है कि आत्मा को अपने कल्याण के लिए किसी पर की ओर देखने की आवश्यकता नहीं है। मुक्ति का मार्ग पूर्णत: स्वाधीन है और मुक्ति में तो पूर्ण स्वाधीनता है ही। सहयोग की आकांक्षा से पर की ओर देखने की आवश्यकता तो है ही नहीं; साथ ही नयविकल्पों में उलझने की भी आवश्यकता नहीं है। पूर्णत: शान्त, एक, अचल, अबाधित, अखण्ड आत्मा की निर्विकल्प आराधना ही पर्याप्त है। यह आराधना भी ऐसा चैतन्यभाव में हैं - ऐसा जानना, मानना और निर्विकल्प होकर उसी में समा जाना ही है। इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। इन कलशों के उपरान्त आत्मख्याति में गद्य में एक महामंत्र दिया गया है; जिसके भाव को आत्मसात कर उस भाव में ही समा जाना है। नित्य जपने योग्य वह मंत्र इसप्रकार है - ___ मैं अपने शुद्धात्मा को न तो द्रव्य से खण्डित करता हूँ, न क्षेत्र से खण्डित करता हूँ, न काल से खण्डित करता हूँ और न भाव से ही खण्डित करता हूँ; क्योंकि मैं तो एक सुविशुद्ध ज्ञानमात्र भाव हूँ। यह तो सर्वविदित ही है कि आत्मख्याति गद्य-पद्यरूप टीका है। यद्यपि इसमें गद्यभाग की ही बहुलता है; तथापि इसमें २७८ छन्द भी आये हैं, जिन्हें कलश नाम से पुकारा जाता है। ___ उक्त मंत्र में दृष्टि के विषयभूत भगवान आत्मा का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। मैं न तो द्रव्य से खण्डित होता हूँ, न क्षेत्र से, न काल से और न भाव से ही खण्डित होता हूँ; मैं तो एक अखण्ड चिन्मात्र वस्तु ही हूँ - यह भावना ही निरन्तर भाने योग्य है। इसी की प्रेरणा आत्मख्याति के इस गद्य खण्ड में दी गई है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy