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________________ परिशिष्ट ६०७ चारित्र के पाक के प्रकर्ष की परम्परा से क्रमश: स्वरूप में आहोरण कराये जाते इस आत्मा को, अन्तर्मग्न निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप भेद की तद्रूपता के द्वारा स्वयं साधकरूप प्रवृत्तसकलकर्मक्षयप्रज्वलितास्खलितविमलस्वभावभावतया सिद्धरूपेण च स्वयं परिणममानं ज्ञानमात्रमेकमेवोपायोपेयभावं साधयति । एवमुभयत्रापि ज्ञानमात्रस्यानन्यतया नित्यमस्खलितैकवस्तुनो निष्कंपपरिग्रहणात् तत्क्षण एव मुमुक्षूणामासंसारादलब्धभूमिकानामपि भवति भूमिकालाभः । ततस्तत्र नित्यदुर्ललितास्ते स्वत एव क्रमाक्रमप्रवृत्तानेकांतमूर्तयः साधकभावसंभवपरमप्रकर्षकोटिसिद्धिभावभाजनं भवति । __ ये तु नेमामंतींतानेकांतज्ञानमात्रैकभावरूपां भूमिमुपलभंते ते नित्यमज्ञानिनो भवंतो ज्ञानमात्रभावस्य स्वरूपेणाभवनं पररूपेण भवनं पश्यंतो जानंतोऽनुचरंतश्च मिथ्यादृष्टयो मिथ्याज्ञानिनो मिथ्याचारित्राश्च भवंतोऽत्यंतमुपायोपेयभ्रष्टा विभ्रमंत्येव । से परिणमित होता हुआ परमप्रकर्ष की पराकाष्ठा को प्राप्त रत्नत्रय की अतिशयता से प्रवर्तित सकल कर्मक्षय से प्रज्वलित हुए अस्खलित विमल स्वभावभावत्व से स्वयं सिद्धरूप से परिणमता हुआ एक ज्ञानमात्रभाव ही उपाय-उपेयभाव को सिद्ध करता है। इसप्रकार ये उपाय और उपेय - दोनों भाव ज्ञानमात्र आत्मा से अनन्य ही हैं। इसलिए सदा अस्खलित एक ज्ञानमात्र आत्मवस्तु के निष्कम्प ग्रहण से, जिनको अनादि संसार से निर्मलभावरूप भूमिका की प्राप्ति न हुई हो; उन मुमुक्षुओं को भी तत्क्षण ही साधक भूमिका की प्राप्ति होती है। फिर उसी में नित्य लीन रहते हुए क्रमरूप से और अक्रमरूप से प्रवर्तमान अनेक धर्मों के अधिष्ठाता वे मुमुक्षु साधकभाव से उत्पन्न होनेवाले परम प्रकर्षरूप साध्यभाव के भाजन होते हैं। ___ परन्तु जो अनेक धर्मों से गर्भित ज्ञानमात्रभाव की इस भूमिका को प्राप्त नहीं कर पाते हैं; वे सदा ही अज्ञानी रहते हुए ज्ञानमात्रभाव को स्वरूप से अभवन और पररूप से भवन देखते हुए, जानते हुए और आचरण करते हुए मिथ्यादृष्टि, मिथ्याज्ञानी और मिथ्याचारित्री होते हुए उपायउपेयभाव से अत्यन्त भ्रष्ट होते हुए संसार में ही परिभ्रमण करते हैं। उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि प्रत्येक आत्मा द्रव्य-पर्यायात्मक वस्तु है और यहाँ शक्तियों के प्रकरण में भी त्रिकाली ध्रुव द्रव्य और गुणों के साथ-साथ निर्मल परिणमन को भी शामिल किया गया है। यह निर्मल परिणमन ही उपाय (साधन-मोक्षमार्ग) और उपेय (साध्य-मोक्ष) के भेद से दो प्रकार का होता है। उपायभाव तो चतुर्थ गुणस्थान से ही प्रगट हो जाता है; क्योंकि वहाँ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान के साथ-साथ अनन्तानुबंधी कषाय के अभाव में होनेवाली चारित्रगुण की परिणति भी अंशरूप में निर्मल हो जाती है। यद्यपि किन्हीं-किन्हीं को क्षायिक सम्यग्दर्शन चतुर्थ गुणस्थान में प्रगट हो जाता है; तथापि क्षायिकज्ञान तेरहवें गुणस्थान के पहले नहीं होता। यद्यपि ज्ञान का परिणमन सम्यग्ज्ञानरूप हो गया
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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