________________
६०८
समयसार है; तथापि ज्ञान की पूर्णता केवलज्ञान होने पर ही होती है। इसीप्रकार चारित्र की पूर्णता भी साध्यभाव की सिद्धि के साथ ही होती है।
(वसंततिलका) ये ज्ञानमात्रनिजभावमयीमकम्पां भूमिं श्रयंति कथमप्यपनीतमोहाः। ते साधकत्वमधिगम्य भवंति सिद्धा मूढास्त्वमूमनुपलभ्य परिभ्रमंति ।।२६६।। स्याद्वादकौशलसुनिश्चलसंयमाभ्यां यो भावयत्यहरहः स्वमिहोपयुक्तः। ज्ञान-क्रिया-नय-परस्पर-तीव्र-मैत्री
पात्रीकृतः श्रयति भूमिमिमां स एकः ।।२६७।। अनन्तगुणात्मक भगवान आत्मा का सिद्धदशारूप परिणमित हो जाना साध्यभाव है, उपेयभाव है, साक्षात् मोक्ष है। फिर भी जबतक आत्मा ने सिद्धदशा प्राप्त नहीं की है; तबतक उसके सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निर्मल परिणमन का नाम साधकभाव है।
इसप्रकार यह भगवान आत्मा स्वयं ही साधक है और स्वयं साध्य भी है। तात्पर्य यह है कि इसे अपने साध्य की सिद्धि के लिए पर की ओर देखने की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है।
इसप्रकार यह सुनिश्चित ही है कि इस ज्ञानमात्र आत्मा में ही साध्य-साधकभावरूप परिणमन भी विद्यमान है। इसप्रकार ये उपायभाव और उपेयभाव आत्मा से अनन्य ही हैं, अन्य नहीं।
आरंभ में जो यह प्रश्न उपस्थित हुआ था कि इस एक ज्ञानमात्र आत्मा में उपाय और उपेय - ये दो भाव किसप्रकार घटित होते हैं? उसका समाधान प्रस्तुत किया। साथ ही आत्मा की स्वाधीनता भी सहज सिद्ध हो गई; क्योंकि उसे अपने साध्य की सिद्धि के लिए पर की ओर झाँकने की आवश्यकता नहीं रही।
आत्मा के ज्ञान, दर्शन, चारित्र ही साधकभाव हैं; बाह्य क्रियाकाण्डरूप व्यवहार नहीं। यद्यपि साधकों के भूमिकानुसार बाह्य व्यवहार भी देखा जाता है, सहज ही होता है; तथापि वह वस्तुतः साधकभाव नहीं है। उसे सहचारी होने के कारण साधक कहना मात्र उपचरित कथन ही है।
इसप्रकार उपाय-उपेयभाव की चर्चा करने के उपरान्त अब आचार्य अमृतचन्द्र कतिपय कलशों के माध्यम से इस प्रकरण का उपसंहार करते हुए अपनी उत्कृष्ट भावना को व्यक्त करते हैं। छन्दों का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(वसंततिलका ) रे ज्ञानमात्र निज भाव अकंपभूमि।
को प्राप्त करते जो अपनीतमोही।।