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समयसार स्याद्वादाधिकार और उपायोपेयाधिकार दे दिये । इसकारण पहले अधिकार का नाम स्याद्वाद अधिकार ही प्रचलित हो गया।
उपायोपेयाधिकार अथास्योपायोपेयभावश्चित्यते -
आत्मवस्तुनो हि ज्ञानमात्रत्वेऽप्युपायोपेयभावो विद्यत एव; तस्यैकस्यापि स्वयं साधकसिद्धरूपोभयपरिणामित्वात् । तत्र यत्साधकं रूपं स उपायः, यत्सिद्धं रूपं स उपेयः।
अतोऽस्यात्मनोऽनादिमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रैः स्वरूपप्रच्यवनात् संसरतःसुनिश्चिलपरिगृहीतव्यवहारसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपाकप्रकर्षपरपरया क्रमेण स्वरूपमारोप्यमाणस्यातर्मग्ननिश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रविशेषतया साधकरूपेण तथा परमप्रकर्षमकरिकाधिरूढरत्नत्रयातिशय
वस्तुव्यवस्था अधिकार में स्याद्वाद की चर्चा ही प्रमुखरूप से हुई है। स्याद्वादाधिकार नामकरण में एक कारण यह भी रहा है।
अस्तु हमने भी उसी का अनुकरण करना उचित समझा; क्योंकि इससे विषयवस्तु में तो कोई विशेष अन्तर आता नहीं। अत: व्यर्थ के बौद्धिक व्यायाम से क्या लाभ है ? इसप्रकार स्याद्वादाधिकार में वस्तुव्यवस्था का प्रतिपादन करने के उपरान्त अब उपाय-उपेयभाव पर विचार करते हैं।
मंगलाचरण
(दोहा) परम शान्त सुखमय दशा, कही जिनागम मोक्ष।
रत्नत्रय की साधना, ही उपाय है मोक्ष ।। इस अधिकार का आरंभ आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र निम्नांकित पंक्ति से करते हैं -
अब उपाय-उपेय भाव पर विचार करते हैं। तात्पर्य यह है कि अकेली एक ज्ञानमात्र आत्मवस्तु में उपायभाव अर्थात् साधकभाव और उपेयभाव अर्थात् साध्यभाव किसप्रकार घटित होते हैं - यह बताते हैं।
उपाय-उपेयभाव का स्वरूप आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
यद्यपि आत्मवस्तु ज्ञानमात्र ही है; तथापि उसमें उपाय-उपेयभाव विद्यमान रहता ही है; क्योंकि एक होने पर भी आत्मा साधकरूप से और साध्यरूप से स्वयं ही परिणमित होता है।
उसमें जो साधकरूपभाव है, वह उपाय है और जो सिद्धरूपभाव है, वह उपेय है। तात्पर्य यह है कि मोक्षमार्ग उपाय है और मोक्ष उपेय है।
अनादिकाल से मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र द्वारा स्वरूप से च्युत होने के कारण संसार में परिभ्रमण करते हुए भलीभाँति ग्रहण किये गये व्यवहार सम्यग्दर्शन-ज्ञान