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________________ ५९४ जैसी शक्तियाँ स्वभावरूप हैं। समयसार प्रश्न : त्यागोपादानशून्यत्व जैसी शक्तियाँ स्वभावरूप क्यों हैं ? अनेकपर्यायव्यापकैकद्रव्यमयत्वरूपा एकत्वशक्तिः । एकद्रव्यव्याप्यानेकपर्यायमयत्व रूपा अनेकत्वशक्तिः । उत्तर : क्योंकि त्यागोपादानशून्यत्व जैसी शक्तियों की न तो पर्यायें होती हैं और उनका कोई प्रतिपक्षी होता है। जिन शक्तियों की पर्यायें होती हैं और जिनका प्रतिपक्षी नहीं होता; वे गुणरूप शक्तियाँ हैं और जिनकी पर्यायें तो नहीं होतीं, पर प्रतिपक्षी अवश्य होता है, वे धर्मरूप शक्तियाँ हैं । जिनकी न पर्यायें हों और न प्रतिपक्षी ही हों; वे स्वभावशक्तियाँ हैं । इस त्यागोपादानशून्यत्वशक्ति की न तो पर्यायें होती हैं और न कोई प्रतिपक्षी ही होता है; इसकारण वे स्वभावरूप शक्तियाँ हैं। इनमें बस बात इतनी ही है कि भगवान आत्मा का ऐसा स्वभाव ही है कि वह न तो किसी से कुछ ग्रहण ही करता है और न किसी का त्याग ही करता है। इसप्रकार हम देखते हैं कि शक्तियों में गुण, धर्म और स्वभाव - सभी को समाहित कर लिया गया है I इसप्रकार तत्त्वशक्ति और अतत्त्वशक्ति का निरूपण करने के उपरान्त अब एकत्वशक्ति और अनेकत्वशक्ति का निरूपण करते हैं. - ३१-३२. एकत्वशक्ति और अनेकत्वशक्ति इन इकतीस और बत्तीसवीं एकत्व और अनेकत्वशक्ति का स्वरूप आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - अनेक पर्यायों व्यापक और एकद्रव्यमयपने को प्राप्त एकत्वशक्ति है और एक द्रव्य से व्याप्त (व्यापने योग्य) अनेक पर्यायोंमय अनेकत्वशक्ति है । इस भगवान आत्मा में एक ऐसी शक्ति है कि जिसके कारण यह भगवान आत्मा अपनी अनेक पर्यायों में व्याप्त होते हुए भी अपने एकत्व को नहीं छोड़ता । आत्मा के इसप्रकार के स्वभाव का नाम ही एकत्वशक्ति है । इसीप्रकार इसमें एक शक्ति ऐसी भी है कि जिसके कारण यह भगवान आत्मा स्वयंरूप एक द्रव्य में व्याप्त रहने पर भी अनेक पर्यायरूप से परिणमित हो जाता है। आत्मा के इसप्रकार के सामर्थ्य का नाम अनेकत्वशक्ति है। तात्पर्य यह है कि यह भगवान आत्मा एक रहकर भी अनेक पर्यायोंरूप परिणमित होने की शक्ति से सम्पन्न है तथा अनेक पर्यायोंरूप परिणमित होते हुए भी इसकी एकता भंग नहीं हो - ऐसी शक्ति से भी सम्पन्न है । यद्यपि एकत्व और अनेकत्व भाव परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं; तथापि इस भगवान आत्मा एकत्व और अनेकत्व - दोनों ही पाये जाते हैं । वह अनेक पर्यायों में परिणमित होते हुए भी एक ही रहता है और एक रहते हुए भी अनेक पर्यायों में परिणमन की सामर्थ्य रखता है; क्योंकि यह आत्मा अनेक पर्यायों में व्यापक एकद्रव्यमय है और एक द्रव्य में व्याप्त अनेकपर्यायमय भी है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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