SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 612
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट ५९३ परस्पर विरुद्ध प्रतीत होते हैं । ऐसे परस्पर विरोधी धर्मों को धारण करने की शक्ति इस भगवान आत्मा में है, जिसका नाम है विरुद्धधर्मत्वशक्ति । इन विरुद्ध धर्मों में तत् और अतत् धर्मों की चर्चा करते हुए इन तत्त्वशक्ति और अतत्त्वशक्ति में यह बताया जा रहा है कि इस भगवान आत्मा में जो भी धर्म हैं; उन सभी के होनेरूप तत्त्वशक्ति है और उनसे भिन्न पदार्थों और उन पदार्थों के धर्मों रूप नहीं होने की शक्ति का नाम अतत्त्वशक्ति है। ये तत्त्व और अतत्त्व शक्तियाँ परस्पर विरुद्ध शक्तियाँ हैं । इसके भी आगे आनेवाली एकत्वअनेकत्व और भाव - अभाव आदि शक्तियाँ भी परस्पर विरुद्ध शक्तियाँ हैं । इसप्रकार परस्पर विरुद्धधर्मत्वशक्ति के उपरान्त इन तत्त्व-अतत्त्व आदि परस्पर विरुद्ध शक्तियों का प्रतिपादन प्रसंगोचित ही है। इन परस्पर विरुद्ध शक्तियों के प्रतिपादन में एक क्रमिक विकास है । गहराई से देखने पर वह सहज ही ख्याल में आता है। इसप्रकार यह भगवान आत्मा तत्त्वशक्ति के कारण स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल- भावमय है और निरन्तर परिणमित भी होता है तथा अतत्त्वशक्ति के कारण न तो परद्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव रूप से है ही और न उनरूप, उनकी पर्यायोंरूप परिणमित ही होता है । इसप्रकार स्वयं की अनंतशक्तियोंरूप होना तत्त्वशक्ति का कार्य है और पररूप नहीं होना अतत्त्वशक्ति का कार्य है । इसप्रकार तत्त्वशक्ति के कारण आत्मा ज्ञानादि गुणों रूप और उनके निर्मल परिणमन रूप है और अतत्त्वशक्ति के कारण रूपादि और रागादिरूप नहीं है। तात्पर्य यह है कि स्वचतुष्टयरूप रहना और परचतुष्टयरूप नहीं होना इस आत्मा का सहज स्वभाव है और आत्मा के इस सहज स्वभाव का नाम ही तत्त्वशक्ति व अतत्त्वशक्ति है । स्व की अस्ति तत्त्वशक्ति का और पर की नास्ति अतत्त्वशक्ति का कार्य है । इन शक्तियों के ज्ञान- श्रद्धान से स्वरूप में रहने की चिन्ता और पररूप न हो जाने का भय समाप्त हो जाता है। ध्यान रखने की विशेष बात यह है कि आरंभ में आनेवाली दृशि, ज्ञान, सुख, वीर्य आदि शक्तियाँ गुणरूप शक्तियाँ हैं और ये तत्त्व - अतत्त्व, एक-अनेक आदि शक्तियाँ धर्मरूप शक्तियाँ हैं । परिशिष्ट के आरम्भिक अंश में ज्ञानमात्र आत्मा में अनेकान्तपना सिद्ध करते हुए जिन १४ भंगों की चर्चा की गई है; उन भंगों में चर्चित तत्-अतत्, एक-अनेक आदि धर्म ही यहाँ तत्त्व - अतत्त्व, एकत्व - अनेकत्व आदि शक्तियों के रूप में प्रस्तुत किये गये हैं । वहाँ जो अनेकान्त की चर्चा की गई है, उसमें अनेकान्त शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से की गई । पहली अनंत गुणों के समुदाय के रूप में और दूसरे परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले धर्मयुगलों के रूप में । उसी को आधार बनाकर यहाँ पहले गुणरूप शक्तियों की चर्चा की गई और बाद में धर्मरूप शक्तियों पर प्रकाश डाला जा रहा है। प्रश्न: क्या शक्तियाँ गुण और धर्मरूप ही होती हैं ? उत्तर : गुण और धर्मों के अतिरिक्त कुछ शक्तियाँ स्वभाव रूप भी होती हैं । त्यागोपादानशून्यत्व
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy