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________________ हा परिशिष्ट ५६९ स्याद्वादी कहते हैं कि द्रव्यार्थिकनय से आत्मा नित्य है और पर्यायार्थिकनय से आत्मा अनित्य है; इसप्रकार आत्मा नित्य भी है और अनित्य भी है। आत्मा में नित्यत्व और अनित्यत्व - दोनों ही धर्म विद्यमान हैं; अत: वह नित्यानित्य है। - ऐसा माननेवाले स्याद्वादी वस्तु के सत्यस्वरूप को प्राप्त कर अनन्त सुखी होते हैं और उक्त दोनों एकान्तवादी वस्तुस्वरूप से अपरिचित रहने के कारण सच्चे सुख से वंचित रहते हैं। स्याद्वाद संबंधी उक्त १४ भंगों के संदर्भ में जो कुछ भी कहा गया है; उक्त सम्पूर्ण कथन का मूल आधार एकमात्र यही है कि ज्ञान का स्वभाव स्वपरप्रकाशक है; इसकारण उसमें स्व और पर सभीप्रकार के अनंत ज्ञेय पर्यायगत योग्यता के अनुसार निरन्तर जानने में आते रहते हैं। तात्पर्य यह है कि ज्ञानपर्याय में परज्ञेयों के जानने को किसी भी स्थिति में रोकना संभव नहीं है; क्योंकि वह ज्ञानपर्याय का सहजस्वाभाविक परिणमन है। __ यद्यपि परज्ञेयों का ज्ञान में जानने में आना कोई अपराध नहीं है, विभाव नहीं है; तथापि कुछ वादी अज्ञानी तो ऐसा मान लेते हैं कि ज्ञान की सार्थकता उक्त ज्ञेयों के जानने में ही है. ज्ञान का अस्तित्व ही उनके जानने में है। मानो उनको जाने बिना ज्ञान का कोई अस्तित्व ही नहीं है। - इसप्रकार वे परज्ञेयों से अपना अस्तित्व मानकर एकप्रकार से स्वयं के स्वाधीन अस्तित्व से ही इनकार कर देते हैं। ऐसे लोग स्वतंत्र निज अस्तित्व के अपलापी एकान्तवादी हैं। __ ऐसे लोग मात्र अन्यमतवादी ही नहीं हैं, अपने को आध्यात्मिक माननेवाले जैनियों में भी ऐसे लोग हैं। क्या ऐसे लोगों की कमी है जो ऐसा मानते हैं कि मैं डॉक्टर है, इन्जीनियर हूँ, शास्त्री हुँ, न्यायतीर्थ हैं: यदि मझे शास्त्रों का ज्ञान नहीं होता तो मैं एकप्रकार से कुछ भी नहीं था। बाह्यपदार्थों के ज्ञान से अपना अस्तित्व माननेवाले लोग कहीं भी मिल जायेंगे। आचार्य कहते हैं कि भाई तेरा अस्तित्व तो तेरे से है, पर को जानने से नहीं। इसके विरुद्ध कुछ अज्ञानी ऐसे हैं कि जो ऐसा मानते हैं कि जो-जो परपदार्थ मेरे जानने में आते हैं, मानो वे मेरे ही हैं । इसप्रकार परज्ञेयों को निजरूप माननेवाले लोग ज्ञान में परज्ञेयों के नास्तित्व से इनकार करनेवाले लोग हैं। जबकि वस्तुस्थिति यह है कि ज्ञान में परज्ञेय जानने में तो आते हैं; किन्तु परज्ञेयों के जानने में परज्ञेयों का रंचमात्र भी योगदान नहीं है, रंचमात्र भी ज्ञेयाधीनता नहीं है। __ ज्ञान का अस्तित्व स्वरूप से ही है तथा परज्ञेय ज्ञान में जानने में आने से वे ज्ञानरूप नहीं हो जाते; ज्ञान में तो उनकी नास्ति ही रहती है। इसलिए न तो परज्ञेयों को जानने का निषेध करने की आवश्यकता है और न उन्हें जानने में आने के कारण उन्हें निजरूप मानने की ही आवश्यकता है। यही स्वरूप से अस्ति और पररूप से नास्ति का वास्तविक अर्थ है। यहाँ इसी मूल धारणा के आधार पर ही १४ प्रकार के एकान्तों का निषेध कर स्याद्वाद की स्थापना की गई है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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