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( अनुष्टुभ् ) इत्यज्ञानविमूढानां ज्ञानमात्रं प्रसाधयन् । आत्मतत्त्वमनेकांतः स्वयमेवानुभूयते । । २६२ ।। एवं तत्त्वव्यवस्थित्या स्वं व्यवस्थापयन् स्वयम् । अलंघ्यं शासनं जैनमनेकान्तो व्यवस्थितः ।। २६३।।
समयसार
इन १४ भंग और तत्संबंधी कलशों के उपरान्त अब इस प्रकरण का समापन करते अमृतचन्द्र दो कलश लिखते हैं; जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
हुए
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आचार्य
(दोहा)
मूढ़जनों को इसतरह, ज्ञानमात्र समझाय ।
अनेकान्त अनुभूति में, उतरा आतमराय ।।२६२।। अनेकान्त जिनदेव का शासन रहा अलंघ्य ।
वस्तुव्यवस्था थापकर, थापित स्वयं प्रसिद्ध ।। २६३ ।। इसप्रकार अनेकान्त अर्थात् स्याद्वाद अज्ञानविमूढ़ प्राणियों को ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व प्रसिद्ध करता हुआ स्वयमेव अनुभव में आता है।
इसप्रकार जिनदेव का अलंघ्य शासनरूप अनेकान्त वस्तु के यथार्थ स्वरूप की व्यवस्था द्वारा स्वयं को स्थापित करता हुआ स्वयं व्यवस्थित हो गया ।
इसप्रकार इन समापन के कलशों में मात्र यही कहा गया है कि स्याद्वाद के माध्यम से समझने पर ‘ज्ञानमात्र आत्मा’- इस कथन का वास्तविक आशय अत्यन्त विमूढ़ अज्ञानियों की भी समझ में सहज ही आ जाता है ।
यह स्याद्वाद जिनेन्द्र भगवान का अलंघ्य शासन है, अभेद्य किला है; जिसका न तो कोई उल्लघंन कर सकता है और न इसे किसी के द्वारा भेदा ही जा सकता है ।
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यह स्याद्वाद वस्तुव्यवस्था को भलीभाँति स्पष्ट करके, स्थापित करके स्वयं स्थापित हो गया है तात्पर्य यह है कि इस स्याद्वाद ने वस्तुस्वरूप को इसप्रकार समझाया है, सिद्ध किया है, स्थापित किया है कि जिससे न केवल वस्तुस्वरूप की व्यवस्था ही स्पष्ट हुई है; अपितु यह स्याद्वाद का सिद्धान्त भी स्वयं स्थापित हो गया, विद्वज्जनों को सर्वमान्य हो गया है।
जब स्याद्वादाधिकार आरंभ किया गया था, तब आचार्यदेव ने इसे सर्वज्ञ भगवान का अस्खलित शासन कहा था और यहाँ अब समापन के प्रसंग पर इस स्याद्वाद को उन्हीं सर्वज्ञ भगवान का अलंघ्य शासन कहा जा रहा है।
तात्पर्य यह है कि न तो इस अनेकान्त और स्याद्वाद के सिद्धान्त में कहीं कोई स्खलन है और न इसका उल्लंघन ही किया जा सकता है। वस्तुतः बात यह है कि यह अनेकान्त सिद्धान्त तथा स्याद्वाद की प्रतिपादन शैली संपूर्णतः अस्खलित है, अलंघ्य है, अकाट्य है और अद्भुत है ।