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________________ परिशिष्ट ५६७ (शार्दूलविक्रीडित ) अध्यास्यात्मनि सर्वभावभवनं शुद्धस्वभावच्युतः सर्वत्राप्यनिवारितो गतभय: स्वैरं पशुः क्रीडति । स्याद्वादी तु विशुद्ध एव लसति स्वस्य स्वभावं भरादारूढः परभावभावविरहव्यालोकनिष्कंपितः ।।२५९।। (हरिगीत) सब ज्ञेय ही हैं आतमा यह मानकर स्वच्छन्द हो। परभाव में ही नित रमें बस इसलिए ही नष्ट हों।। पर स्याद्वादी तो सदा आरूढ़ हैं निजभाव में। विरहित सदा परभाव से विलसें सदा निष्कम्प हो ॥२५९।। एकान्तवादी अज्ञानी ज्ञेयरूप से जाने गये सभी परपदार्थों में अपनापन स्थापित करके अपने शुद्धस्वभाव से च्युत होता हुआ सभी परभावों में स्वछन्दतया क्रीड़ा करता है; किन्तु परभावों से अपना अस्तित्व नहीं मानता हुआ स्याद्वादी तो अपने स्वभाव में आरूढ़ होता हुआ निष्कम्प वर्तते हुए अत्यन्त शुद्ध सुशोभित होता है। इसप्रकार हम देखते हैं कि इन स्वभाव और परभाव संबंधी भंगों में यही बताया गया है कि जाननेरूप अपने ज्ञानभाव में जानने में आनेवाले परज्ञेयों के कारण कुछ अज्ञानी एकान्तवादियों को तो ऐसा लगता है कि इन ज्ञेयों को जानने के कारण, ज्ञेयाकाररूप परिणमित हो जाने के कारण यह भगवान आत्मा भी ज्ञेयरूप ही हो गया है। इसप्रकार आत्मा की स्वतंत्र सत्ता से इनकार करने के कारण अपने स्वभाव से अपने अस्तित्व को न स्वीकारते हुए वे अज्ञानी नाश को प्राप्त होते हैं। ___ इसीप्रकार कुछ अज्ञानियों को ऐसा लगता है कि हमारे ज्ञान में जब सभी पदार्थ आ गये, जाने गये तो वे हमारे ही हो गये। इसप्रकार सर्व पदार्थों को स्व के रूप में स्वीकार करनेवाले ये लोग नास्तित्व धर्म से इनकार करते हैं; जबकि परभावों की तो आत्मा में नास्ति है; परन्तु ये लोग उन परभावों को स्व में अस्तिरूप स्वीकार कर रहे हैं । इसप्रकार नास्तित्व के इनकार से एकान्तवादी हो रहे हैं। ___ इसप्रकार कुछ अज्ञानी तो जानने में आनेवाले ज्ञेयपदार्थों में अपनापन स्थापित करके अपने स्वभाव के अस्तित्व से इनकार करके एकान्ती हो गये हैं और कुछ अज्ञानी ज्ञेयों को अपना स्वभाव मानकर परभाव के नास्तित्व से इनकार करके एकान्ती हो गये हैं। स्वभाव (ज्ञानस्वभाव) से अस्तित्व और ज्ञेयरूप परभावों से नास्तित्व स्वीकार करनेवाले स्याद्वादी अनेकान्तवादी होकर जीवित रहते हैं अर्थात् अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द को प्राप्त करते हैं।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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