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समयसार (शार्दूलविक्रीडित ) विश्रान्तः परभावभावकलनान्नित्यं बहिर्वस्तुषु नश्यत्येव पशुः स्वभावमहिमन्येकांतनिश्चेतनः । सर्वस्मान्नियतस्वभावभवनज्ञानाद्विभक्तो भवन्
स्याद्वादी तु न नाशमेति सहजस्पष्टीकृतप्रत्ययः ।।२५८।। इसमें यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि ज्ञान की प्रतिसमय होनेवाली पर्याय का ज्ञेय का सुनिश्चितपना ज्ञान की उक्त पर्याय का सहज स्वभाव है और जो ज्ञेय उसमें जाना गया है, जाना जा रहा है या जाना जायेगा; उस ज्ञेय का उक्त पर्याय में जानने में आना - यह उक्त ज्ञेय का सहजस्वभाव है।
जाननेवाली ज्ञानपर्याय और जानने में आनेवाले ज्ञेय में परस्पर कोई पराधीनता नहीं है, कारणकार्यपना नहीं है।
ऐसी स्थिति में ज्ञेय से ज्ञान की उत्पत्ति की बात ही कहाँ रहती है और ज्ञेय के अभाव से ज्ञान के अभाव की बात भी कहाँ ठहरती है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि स्वकाल-परकाल संबंधी भंगों के संदर्भ में हुई सम्पूर्ण चर्चा का सार यह है कि कुछ एकान्तवादी अज्ञानी तो भूतकाल में जाने हुए ज्ञेयपदार्थों के नाश के साथ-साथ उन्हें जाननेवाले ज्ञान का भी नाश मानकर अपना नाश करते हैं और कुछ एकान्तवादी अज्ञानी ऐसा मानकर नाश को प्राप्त होते हैं कि ज्ञान जब ज्ञेयों को जानता है, तभी वह सत्स्वरूप है; इस मान्यता के कारण परज्ञेयों के जानने में ही उलझकर रह जाते हैं। । स्याद्वादी ज्ञानी तो परज्ञेयों के काल से अपना नास्तित्व मानते हैं, अपने काल से ही अपना अस्तित्व मानते हैं। इसलिए अपने में ही रहते हुए ज्ञानपुंज रहते हैं, अपना नाश नहीं होने देते। अब स्वभाव-परभाव संबंधी कलश काव्य लिखते हैं, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) परभाव से निजभाव का अस्तित्व मानें अज्ञजन। पर में रमें जग में भ्रमें निज आतमा को भूलकर ।। पर भिन्न हो परभाव से ज्ञानी रमें निजभाव में।
बस इसलिए इस लोक में वे सदा ही जीवित रहें॥२५८।। एकान्तवादी अज्ञानी परभावों से अपना भाव (अस्तित्व) मानने के कारण बाह्यवस्तुओं में ही विश्राम करता हुआ अपने स्वभाव की महिमा में अत्यन्त निश्चेतन (जड़ जैसा) होता हुआ नाश को प्राप्त होता है; किन्तु स्याद्वादी तो अपने सुनिश्चित स्वभाव से ही अपना अस्तित्व मानने के कारण परभावों से भिन्न वर्तता हआ अपने सहज स्वभाव को स्पष्टरूप से प्रत्यक्ष अनुभव करता हुआ नाश को प्राप्त नहीं होता अर्थात् जीवित रहता है।