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परिशिष्ट
५६३ (शार्दूलविक्रीडित) भिन्नक्षेत्रनिषण्णबोध्यनियतव्यापारनिष्ठः सदा सीदत्येव बहिः पतंतमभित: पश्यन्पुमांसं पशुः। स्वक्षेत्रास्तितया निरुद्धरभसः स्याद्वादवेदी पुनस्तिष्ठत्यात्मनिखातबोध्यनियतव्यापारशक्तिर्भवन् ।।२५४।। स्वक्षेत्रस्थितये पृथग्विधपरक्षेत्रस्थितार्थोज्झनात् तुच्छीभूय पशुः प्रणश्यति चिदाकारान्सहार्थैर्वमन् । स्याद्वादी तु वसन् स्वधामनि परक्षेत्रे विदन्नास्तितां
त्यक्तार्थोऽपि न तुच्छतामनुभवत्याकारकर्षी परान् ।।२५५।। वस्तुत: बात यह है कि अनादिकाल से इस आत्मा ने निज भगवान आत्मा को तो देखा-जाना नहीं और इन्द्रियों के माध्यम से परपदार्थों को ही देखा जाना है; इसलिए वह पर के अस्तित्व में ही निज का अस्तित्व अनुभव करता है। इसप्रकार स्वयं के अस्तित्व से इन्कार करनेवाला अज्ञानी नाश को प्राप्त होता है।
इसीप्रकार निज आत्मा को नहीं जाननेवाले कुछ अज्ञानी अपने आत्मा को सर्वद्रव्यमय मानकर, अपने में जो पर का नास्तित्व है; उससे इन्कार कर देते है।
स्वयं को जानने-देखनेवाले, स्वयं का अनुभव करनेवाले स्याद्वादी ज्ञानी स्वयं का अस्तित्व स्वयं से स्वीकार कर और समस्त परद्रव्यों का स्वयं में अभाव स्वीकार कर आनन्द से निज भगवान आत्मा में रमण करते हैं और सुखी रहते हैं। अब स्वक्षेत्र-परक्षेत्र संबंधी कलश काव्य लिखते हैं, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) परक्षेत्रव्यापी ज्ञेय-ज्ञायक आतमा परक्षेत्रमय। यह मानकर निजक्षेत्र का अपलाप करते अज्ञजन ।। जो जानकर परक्षेत्र को परक्षेत्रमय होते नहीं। वे स्याद्वादी निजरसी निजक्षेत्र में जीवित रहें।।२५४।। मैं ही रहूँ निजक्षेत्र में इस भाव से परक्षेत्रगत। जो ज्ञेय उनके साथ ज्ञायकभाव भी परित्याग कर ।। हों तुच्छता को प्राप्त शठ पर ज्ञानिजन परक्षेत्रगत ।
रे छोड़कर सब ज्ञेय वे निजक्षेत्र को छोड़ें नहीं।।२५५।। सर्वथा एकान्तवादी अज्ञानी अपने से भिन्न क्षेत्र में रहे हए ज्ञेयपदार्थों के साथ आत्मा का जो सहज सुनिश्चित ज्ञेय-ज्ञायक संबंध है; उसमें प्रवर्तता हुआ आत्मा को सम्पूर्णत: बाहर पड़ता देखकर स्वक्षेत्र से आत्मा का अस्तित्व न मानकर नाश को प्राप्त होता है।