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समयसार
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(शार्दूलविक्रीडित ) पूर्वालंबितबोध्यनाशसमये ज्ञानस्य नाशं विदन् सीदत्येव न किंचनापि कलयन्नत्यंततुच्छः पशुः। अस्तित्वं निजकालतोऽस्य कलयन् स्याद्वादवेदी पुनः
पूर्णस्तिष्ठति बाह्यवस्तुषु मुहुर्भूत्वा विनश्यत्स्वपि ।।२५६।। किन्तु स्वक्षेत्र के अस्तित्व में रुके हुए वेगवाले स्याद्वादवेदी तो आत्मा में प्रतिबिम्बित ज्ञेयों में निश्चित व्यापार की शक्तिवाले होकर टिके रहते हैं, जीवित रहते हैं, नाश को प्राप्त नहीं होते।
सर्वथा एकान्तवादी अज्ञानी स्वक्षेत्र में रहने के लिए अपने से पृथक् परक्षेत्र में रहे हुए अनेकप्रकार के ज्ञेयपदार्थों को छोड़ने से ज्ञेयपदार्थों के साथ चैतन्य के आकारों का वमन करता (छोड़ता) हुआ तुच्छ होकर नाश को प्राप्त होता है।
किन्तु स्याद्वादी तो स्वक्षेत्र में रहते हुए और परक्षेत्र में अपना नास्तित्व जानते हुए परक्षेत्र स्थित ज्ञेयपदार्थों को छोड़ते हुए भी परपदार्थों में से चैतन्य के आकारों को खोजते हैं। तात्पर्य यह है कि ज्ञेयपदार्थों के निमित्त से होनेवाले चैतन्य के आकारों को छोड़ते नहीं हैं। इसीकारण तच्छता को भी प्राप्त नहीं होते. नष्ट नहीं होते. जीवित रहते हैं।
इसप्रकार इन कलशों में यही कहा गया है कि कुछ अज्ञानी तो अपने से भिन्न क्षेत्र में रहे हुए ज्ञेयों को जाननेवाले ज्ञान को परक्षेत्ररूप ही मानकर स्वक्षेत्र के अस्तित्व से इनकार कर देते हैं और कुछ लोग स्वक्षेत्र में रहने की भावना से परक्षेत्र में रहनेवाले ज्ञेयों के वमन के साथ-साथ उन्हें जाननेवाले ज्ञान का भी वमन कर देते हैं। - इसप्रकार दोनों एकान्तवादी नाश को प्राप्त होते हैं; किन्तु स्याद्वादी स्वक्षेत्र से अपना अस्तित्व स्वीकार करते हुए परक्षेत्र में रहे हुए ज्ञेयों को जानकर भी उनसे अपना नास्तित्व स्वीकार करके उन्हें जाननेवाले ज्ञान को नहीं छोड़ते हैं। - इसप्रकार वे जीवित रहते हैं।
उक्त सम्पूर्ण कथन में मूल बात यह है कि ज्ञानस्वभावी भगवान आत्मा के ज्ञान में परक्षेत्ररूप ज्ञेय झलकते हैं और उन्हें देखकर यह अज्ञानी जीव या तो स्वयं को परक्षेत्ररूप मान लेता है या परक्षेत्र को निजरूप मान लेता है। - इसकी यह मान्यता ही अज्ञान है, एकान्त है।
स्याद्वादी ज्ञानी यह जानते हैं कि परज्ञेयों के क्षेत्र, प्रदेश या आकार जीव के ज्ञान में झलकते तो हैं; पर न तो वे जीवरूप होते हैं और न जीव ही उन रूप होता है। ज्ञान उन्हें जानता तो है, पर उन रूप नहीं होता। इसीप्रकार परक्षेत्ररूप ज्ञेय ज्ञान में झलकते तो हैं; पर वे भी ज्ञानरूप नहीं होते।
ज्ञान परक्षेत्र को जानकर भी स्वक्षेत्र में रहता है और परक्षेत्ररूप ज्ञेय ज्ञान में झलक कर भी अपने क्षेत्र में ही रहते हैं, ज्ञान के क्षेत्र में नहीं आते।
इसप्रकार ज्ञान और उसमें झलकनेवाले परज्ञेय - दोनों की सत्ता और क्षेत्र पृथक-पृथक ही हैं।