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समयसार
(शार्दूलविक्रीडित ) प्रत्यक्षालिखितस्फुटस्थिरपरद्रव्यास्तितावंचितः स्वद्रव्यानवलोकनेन परित: शून्यः पशुर्नश्यति । स्वद्रव्यास्तितया निरूप्य निपुणं सद्यः समुन्मज्जता स्याद्वादी तु विशुद्धबोधमहसा पूर्णो भवन् जीवति ।।२५२।। सर्वद्रव्यमयं प्रपद्य पुरुषं दुर्वासनावासित: स्वद्रव्यभ्रमत: पशुः किल परद्रव्येषु विश्राम्यति । स्याद्वादी तु समस्तवस्तुषु परद्रव्यात्मना नास्तितां
जानन्निर्मलशुद्धबोधमहिमा स्वद्रव्यमेवाश्रयेत् ।।२५३।। इसप्रकार इन दोनों भंगों में स्वद्रव्य से अस्तित्व और परद्रव्य से नास्तित्व सिद्ध करते हुए अस्ति और नास्ति संबंधी अनेकान्त की स्थापना की गई है। उक्त भंगों संबंधी कलशों का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) इन्द्रियों से जो दिखे ऐसे तनादि पदार्थ में। एकत्व कर हों नष्ट जन निजद्रव्य को देखें नहीं। निजद्रव्य को जो देखकर निजद्रव्य में ही रत रहें। वे स्याद्वादी ज्ञान से परिपूर्ण हो जीवित रहें।।२५२।। सब द्रव्यमय निज आतमा यह जगत की दुर्वासना। बस रत रहे परद्रव्य में स्वद्रव्य के भ्रमबोध से।। परद्रव्य के नास्तित्व को स्वीकार कर सब द्रव्य में।
निजज्ञान बल से स्याद्वादी रत रहें निजद्रव्य में॥२५३।। मात्र प्रत्यक्ष (इन्द्रिय-प्रत्यक्ष) दिखाई देनेवाले स्थूल शरीरादि परपदार्थों के अस्तित्व को स्वीकार करने से ठगा गया एकान्तवादी अज्ञानी स्वद्रव्य को देखता ही नहीं है और स्वद्रव्य को नहीं देखने से सभी ओर से शून्य होता हुआ नाश को प्राप्त होता है।
परन्तु स्याद्वादी तो अपने आत्मारूप स्वद्रव्य के अस्तित्व को देखता हुआ, जानता हुआ, स्वीकार करता हुआ; अतिशीघ्र प्रगट हुए विशुद्धज्ञानप्रकाश से पूर्ण होता हुआ जीता है, नाश को प्राप्त नहीं होता।
दुर्वासना से वासित अर्थात् दुर्नय के आग्रह से दुराग्रही अज्ञानी आत्मा को सर्वद्रव्यमय मानकर स्वद्रव्य के भ्रम से परद्रव्यों में विश्राम करता है, उन्हें ही निजरूप मानकर उन्हीं में जमता-रमता है; किन्तु स्याद्वादी तो समस्त वस्तुओं में परद्रव्यों की नास्तेि स्वीकार करता हुआ शुद्धज्ञान की महिमा में ही रत रहता हुआ स्वद्रव्य का ही आश्रय करता है।