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परिशिष्ट
५६१ इसप्रकार ज्ञान एक भी है और अनेक भी है, एकाकार भी है और अनेकाकार भी है, ज्ञानाकार भी है और ज्ञेयाकार भी है। यही एकानेक सम्बन्धी अनेकान्त है।
उक्त अनेकान्त से अपरिचित एकान्तवादी या तो ज्ञान को एक ही मानते हैं या फिर अनेक ही मानते हैं, एकाकार ही मानते हैं या फिर अनेकाकार ही मानते हैं, ज्ञानाकार ही मानते हैं या फिर ज्ञेयाकार ही मानते हैं।
ज्ञान को एक ही माननेवाले एकान्तवादियों का कहना यह है कि अनेक ज्ञेयों को जानने से ज्ञान मलिन हो जाता है; इसकारण ज्ञेयाकारज्ञान अशुद्धि का जनक है; अत: ज्ञान को एक ज्ञानाकार मानना ही ठीक है; पर उन्हें इस बात का पता नहीं है कि अनेक ज्ञेयों को जानना ज्ञान का सहज स्वभाव है, विभाव नहीं; इसकारण अनेक ज्ञेयों को जानने से ज्ञान का मलिन होना संभव ही नहीं।
ज्ञान को अनेक माननेवाले एकान्तवादियों का कहना यह है कि अनेक ज्ञेयों को जानता हुआ ज्ञान अनेक ही दिखाई देता है; अत: वह अनेक ही है, अनेकाकार ही है। इसीप्रकार ज्ञेयों को जानने के अतिरिक्त ज्ञान का और कार्य भी क्या है ? अत: वह ज्ञेयाकार ही है।
स्याद्वादी कहते हैं कि ज्ञान द्रव्यस्वभाव से एकाकार है, ज्ञानाकार है; इसलिए एक भी है और पर्यायस्वभाव से अनेकाकार है, ज्ञेयाकार है; इसलिए अनेक भी है।
इसप्रकार यह सुनिश्चित है कि ज्ञान एक भी है और अनेक भी है। द्रव्यस्वभाव से एक है और पर्यायस्वभाव से अनेक है। यद्यपि अनेक परज्ञेयों के जानने की अपेक्षा ही ज्ञान अनेक कहा गया है; तथापि अनेक ज्ञेयों के जानने से ज्ञान की एकता खण्डित नहीं होती। इसप्रकार ज्ञान एक होकर भी अनेक है और अनेक होकर भी एक है।
प्रथम और द्वितीय तत् और अतत् संबंधी भंग में स्वरूप से तत् और पररूप से अतत् की अपेक्षा बात स्पष्ट की थी तथा एक और अनेक संबंधी तीसरे और चौथे भंग में अनेक ज्ञेयों को जानने के कारण ज्ञानमात्र भाव को अनेकाकार-ज्ञेयाकार और जाननस्वभाव के कारण एकाकार-ज्ञानाकार कहा गया है।
अब आगामी आठ भंगों में स्वद्रव्य-परद्रव्य, स्वक्षेत्र-परक्षेत्र, स्वकाल-परकाल और स्वभावपरभाव संबंधी वस्तुस्थिति स्पष्ट करेंगे।
यद्यपि दोनों का यह सहज स्वभाव ही है, इसमें किसीप्रकार की पराधीनता नहीं है; तथापि कुछ अज्ञानियों को ऐसा लगता है कि ज्ञान में ज्ञेयों के आ जाने से वे ज्ञेय ज्ञानरूप ही हो गये तथा कुछ अज्ञानियों को ऐसा लगता है कि ज्ञेयों को जानने के कारण ज्ञान ज्ञेयरूप ही हो गया है।
इसप्रकार अज्ञानी तो एक स्व का अपलापक हो जाता है और दूसरा अज्ञानी पर का अपलापक हो जाता है। स्याद्वादी इस परमसत्य को भलीभाँति जानते हैं; अत: दोनों अपेक्षाओं को भलीभाँति जानकर-मानकर परमसत्य को प्राप्त कर लेते हैं। प्रश्न : वह कौन-सा परमसत्य है, जिसे जान लेने से स्याद्वादी परमसत्य को प्राप्त कर लेते हैं ?
उत्तर : यही कि पर को जानने मात्र से न तो ज्ञान पररूप होता है और न ज्ञान में जानने में आने से ज्ञेय ज्ञानरूप ही होते हैं; दोनों की सत्ता पूर्णत: भिन्न-भिन्न ही रहती हैं और उनमें परस्पर एकत्वममत्व-कर्तृत्व-भोक्तृत्व भी स्थापित नहीं होता।