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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
सहचारी होने से उपचार से मोक्षमार्ग कहा जाता है।
इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि यद्यपि नग्नदिगम्बरदशारूप द्रव्यलिंग के बिना मोक्ष नहीं होता; तथापि सच्चा मुक्तिमार्ग तो निश्चयरत्नत्रयरूप भावलिंग ही है।
अब इसी बात का पोषक कलश काव्य कहते हैं; जो आगामी गाथा की उत्थानिका भी प्रस्तुत करता है। कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है
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(दोहा)
मोक्षमार्ग बस एक ही, रत्नत्रयमय होय ।
अत: मुमुक्षु के लिए, वह ही सेवन योग ।। २३९ ।।
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आत्मा का तत्त्व दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मक है; इसलिए मुमुक्षुओं के लिए दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप इस एक मोक्षमार्ग का सेवन करना चाहिए ।
उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि दया आदि के परिणाम शुभभाव होने से पुण्यबंध के कारण हैं और इसीकारण उन्हें व्यवहार से धर्म भी कहा जाता है। फिर भी वे दयादि के परिणाम विकल्परूप हैं; अतः उनसे निस्तरंगरूप अनुभवदशा की प्राप्ति नहीं हो सकती। वास्तविक धर्म तो निस्तरंगरूप अनुभवदशा ही है। वह ही दर्शनज्ञानचारित्ररूप परिणाम है। इसलिए जो व्यक्ति निश्चयदर्शनज्ञानचारित्ररूप परिणमित होकर आत्मा में ही स्थिर होता है; वही अनुभवी और समझदार है ।
मोक्खपहे अप्पाणं ठवेहि तं चेव झाहि तं चेय ।
तत्थेव विहर णिच्चं मा विहरसु अण्णदव्वसु ।।४१२।। मोक्षपथे आत्मानं स्थापय तं चैव ध्यायस्व तं चेतयस्व ।
तत्रैव विहर नित्यं मा विहार्षीरन्यद्रव्येषु ।।४१२ । ।
आसंसारात्परद्रव्ये रागद्वेषादौ नित्यमेव स्वप्रज्ञादोषेणावतिष्ठमानमपि, स्वप्रज्ञागुणेनैव ततो व्यावर्त्य दर्शनज्ञानचारित्रेषु नित्यमेवावस्थापयातिनिश्चलमात्मानं; तथा समस्तचिन्तांतरनिरोधेनात्यंतमेकाग्रो भूत्वा दर्शनज्ञानचारित्राण्येव ध्यायस्व; तथा सकलकर्मकर्मफलचेतनासंन्यासेन शुद्धज्ञानचेतनामयो भूत्वा दर्शनज्ञानचारित्राण्येव चेतयस्व; तथा द्रव्यस्वभाववशत: प्रतिक्षणविजृम्भमाणपरिणामतया तन्मयपरिणामो भूत्वा दर्शनज्ञानचारित्रेष्वेव विहर; तथा ज्ञानरूपमेकमेवाचलितमवलंबमानो ज्ञेयरूपेणोपाधितया सर्वत एव प्रधावत्स्वपि परद्रव्येषु सर्वेष्वपि मनागपि मा विहार्षीः ।
जो बात विगत कलश में कही गई है; अब उसी बात को गाथा द्वारा स्पष्ट करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है
( हरिगीत ) मोक्षपथ में थाप निज को चेतकर निज ध्यान धर ।