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________________ ५४२ समयसार निज में ही नित्य विहार कर परद्रव्य में न विहार हे भव्य ! तू अपने आत्मा को मोक्षमार्ग में स्थापित कर । तदर्थ अपने आत्मा का ही ध्यान कर, आत्मा में ही चेत, आत्मा का ही अनुभव कर और निज आत्मा में ही सदा विहार कर; परद्रव्यों में विहार मत कर। तात्पर्य यह है कि अपने आत्मा में ही उपयोग को लगा, परद्रच्यों में उलझने से कोई लाभ नहीं है। इस गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - “यद्यपि यह अपना आत्मा अनादिकाल से अपनी प्रज्ञा के दोष से परद्रव्य और रागद्वेषादि में निरन्तर स्थित है; तथापि हे आत्मन् ! तू अपनी प्रज्ञा के गुण के द्वारा स्वयं को वहाँ से हटाकर ज्ञान-दर्शन-चारित्र में निरन्तर स्थापित करके, समस्त चिन्ता (चिन्तवन-विकल्प) का निरोध करके अपने में अत्यन्त एकाग्र होकर दर्शन-ज्ञान-चारित्र का ही ध्यान कर तथा समस्त कर्मचेतना और कर्मफलचेतना के त्याग द्वारा शुद्धज्ञानचेतनामय होकर दर्शन-ज्ञान-चारित्र को ही चेत, अनुभव कर तथा द्रव्य के स्वभाव के वश से प्रतिक्षण उत्पन्न होनेवाले परिणामों के द्वारा तन्मय परिणामवाला (दर्शन-ज्ञान-चारित्रवाला) होकर दर्शन-ज्ञान-चारित्र में ही विहार कर तथा एक ज्ञानरूप को ही अचलतया अवलम्बन करता हुआ ज्ञेयरूप समस्त परद्रव्यों की उपाधियों में किंचित्मात्र भी विहार मत कर।" ( शार्दूलविक्रीडित) एको मोक्षपथो य एष नियतो दृग्ज्ञप्तिवृत्त्यात्मकस्तत्रैव स्थितिमेति यस्तमनिशं ध्यायेच्च तं चेतति । तस्मिन्नेव निरंतरं विहरति द्रव्यांतराण्यस्पृशन् सोऽवश्यं समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विंदति ।।२४०।। उक्त सम्पर्ण कथन का सार यह है कि यद्यपि यह भगवान आत्मा अनादि से ही स्वयं की प्रज्ञा के दोष से अर्थात स्वयं की ही विभावपरिणमनरूप पर्यायगत योग्यता से स्वयं ही राग-द्वेषरूप परिणम रहा है; तथापि स्वयं ही प्रज्ञा के गुण से अर्थात् स्वयं की ही स्वभाव-परिणामरूप पर्यायगत योग्यता से स्वयं को विकारी परिणमन से हटाकर दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणमन कर सकता है। तात्पर्य यह है कि न तो इसके विकाररूप परिणमन में किसी पर का कोई दोष है और न स्वभावरूप परिणमन ही कोई और करायेगा । यह स्वयं ही विकारी परिणमन को छोड़कर स्वभावरूप परिणमन कर सकता है। अत: हे आत्मन् ! अब सम्यग्रत्नत्रयरूप परिणमन कर स्वयं को स्वयं ही मोक्षमार्ग में स्थापित कर । जिस भगवान आत्मा के आश्रय से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की उत्पत्ति होती है; समस्त
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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