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समयसार
स्वाभाविकरूप से ही उत्पन्न होता है। तात्पर्य यह है कि न तो आत्मा के स्वभाव में ही ऐसी बात है कि वह परद्रव्यों को ग्रहण करे और छोड़े और न किसी निमित्त के कारण वह ऐसा करे- ऐसी ही कोई विवशता है। अतः आत्मा परद्रव्यों को ग्रहण करे या छोड़े - ऐसी कोई बात ही नहीं बनती ।
उक्त गाथाओं का अर्थ आत्मख्याति में अत्यन्त संक्षेप में किया गया है, एक प्रकार से गाथाओं सामान्य अर्थ को ही मात्र दुहरा दिया गया है, जो इसप्रकार है।
" ज्ञान परद्रव्य को किंचित्मात्र भी न तो ग्रहण करता है और न छोड़ता ही है; क्योंकि प्रायोगिक और वैस्रसिक गुण की सामर्थ्य से ज्ञान के द्वारा परद्रव्य का ग्रहण तथा त्याग अशक्य है। ज्ञान अर्थात् आत्मद्रव्य का कर्म-नोकर्मरूप परद्रव्य आहार नहीं है; क्योंकि वह मूर्तिक पुद्गलद्रव्य है, इसलिए ज्ञान आहारक नहीं है । इसीलिए ऐसी आशंका भी नहीं करनी चाहिए कि ज्ञान (आत्मा) के देह होगी । "
यद्यपि आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इन गाथाओं का अर्थ आत्मख्याति के समान ही करते हैं; तथापि वे प्रायोगिक और वैस्रसिक का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि प्रायोगिक : कर्मसंयोगजनित: वैस्रसिक: स्वभावतः - जो कर्म के संयोग से उत्पन्न हो, उसे प्रायोगिक कहते हैं और जो स्वभाव से हो, उसे वैस्रसिक कहते हैं ।
उक्त सम्पूर्ण कथन का सारांश यह है कि यह अमूर्तिक आत्मा पुद्गलमयी मूर्तिक आहार ग्रहण नहीं कर सकता है; क्योंकि परद्रव्यों को ग्रहण करने का न तो आत्मा का स्वभाव ही है और न पर निमित्त के संयोग से ऐसा करने का आत्मा का स्वभाव है।
( अनुष्टुभ् )
एवं ज्ञानस्य शुद्धस्य देह एव न विद्यते ।
ततो देहमयं ज्ञातुर्न लिंगं मोक्षकारणम् ।। २३८ ॥ पासंडीलिंगाणि व गिहिलिंगाणि व बहुप्पयाराणि । घेत्तुं वदंति मूढा लिंगमिणं मोक्खमग्गो त्ति ।।४०८ ।। दु होदि मोक्खमग्गो लिंगं जं देहणिम्ममा अरिहा । लिंगं मुत्तु दंसणणाणचरित्ताणि सेवंति । । ४०९ । ।
अत: निष्कर्ष यही है कि यह आत्मा परजीवों और अजीव द्रव्यों से न तो कुछ ग्रहण ही करता है और न कुछ त्यागता ही है । आत्मा में एक त्यागोपादानशून्यत्व नाम की शक्ति है; उसका भी यही कार्य है। त्यागोपादानशून्यत्व शक्ति का मूल उत्स भी यही प्रकरण है।
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अब आगामी गाथाओं का सूचक कलशकाव्य कहते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ( सोरठा )
शुद्धज्ञानमय जीव, के जब देह नहीं कही ।
तब फिर देही लिंग, शिवमग कैसे हो सके ।। २३८।।
इसप्रकार शुद्धज्ञान (आत्मा) के देह ही नहीं है; इसकारण ज्ञाता जीव को देहमय चिह्न