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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
ज्ञानस्वभावी जीव, परद्रव्यों से भिन्न ही।
कैसे कहें सदेह, जब आहारक ही नहीं ।।२३७।। इसप्रकार यह ज्ञान परद्रव्यों से पूर्णत: पृथक् स्थापित हुआ। ऐसी स्थिति में वह ज्ञान (आत्मा) आहार करनेवाला कैसे हो सकता है कि जिससे इसे देहवान होने की शंका की जा सके।
तात्पर्य यह है कि जब यह ज्ञानस्वभावी आत्मा आहारक ही नहीं है तो देहवाला कैसे हो सकता है ? आत्मा को देहवाला कहना एकदम असद्भूत है, असत्यार्थ है, असद्भूत व्यवहारनय का विषय है। जो बात उक्त कलश में कही गई है। अब उसी को गाथाओं द्वारा विस्तार से स्पष्ट करते हैं -
( हरिगीत ) आहार पुद्गलमयी है बस इसलिए है मूर्तिक । ना अहारक इसलिए ही यह अमूर्तिक आतमा।।४०५।। परद्रव्य का ना ग्रहण हो ना त्याग हो इस जीव के। क्योंकि प्रायोगिक तथा वैनसिक स्वयं गुण जीव के॥४०६।। इसलिए यह शुद्धातमा पर जीव और अजीव से। कुछ भी ग्रहण करता नहीं कुछ भी नहीं है छोड़ता ।।४०७।।
आत्मा यस्यामूर्तो न खलु स आहारको भवत्येवम् । आहारः खलु मूर्तो यस्मात्स पुद्गलमयस्तु ।।४०५।। नापि शक्यते ग्रहीतुं यत् न विमोक्तुं यच्च यत्परद्रव्यम् । स कोऽपिच तस्य गुण: प्रायोगिको वैस्रसो वाऽ तस्मात्तु या विशुद्धश्चेतयिता स नैव गृह्णाति किंचित् ।
नैव विमुंचति किंचिदपि जीवाजीवयोर्द्रव्ययोः ।।४०७।। ज्ञानं हि परद्रव्यं किंचिदपि न गृह्णाति न मुंचति च, प्रायोगिकगुणसामर्थ्यात् वैनसिकगुणसामर्थ्याद्वा ज्ञानेन परद्रव्यस्य गृहीतुं मोक्तुं चाशक्यत्वात् । परद्रव्यं च न ज्ञानस्यामूर्तात्मद्रव्यस्य मूर्तपुद्गलद्रव्यत्वादाहारः । ततो ज्ञानं नाहारकं भवति । अतो ज्ञानस्य देहो न शङ्कनीयः ।
इसप्रकार जिसका आत्मा अमूर्तिक है, वह वस्तुतः आहारक नहीं है; क्योंकि आहार पुद्गलमय होने से मूर्तिक है।
परद्रव्य को न तो छोड़ा जा सकता है और न ही ग्रहण किया जा सकता है; क्योंकि आत्मा के कोई ऐसे ही प्रायोगिक और वैनसिक गुण हैं।
इसलिए विशुद्धात्मा जीव और अजीव परद्रव्यों से कुछ भी ग्रहण नहीं करते और न छोड़ते ही हैं।
ध्यान रहे, यहाँ प्रायोगिक से आशय परनिमित्त से उत्पन्न होता है और वैस्रसिक का आशय