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________________ समयसार प्रत्याख्यान के माध्यम से पर में कर्तृत्व की भावनारूप कर्मचेतना का निषेध किया; फिर कर्मों की १४८ प्रकृतियों के फल के उपभोग की भावनारूप कर्मफलचेतना का निषेध किया। ___ इसप्रकार अज्ञानचेतना के निषेधपूर्वक ज्ञानचेतना की स्थापना करते हुए स्वपरप्रकाशक ज्ञान की स्थापना कर पर में होनेवाले एकत्व-ममत्व का भी निषेध कर दिया। ज्ञान के सर्वज्ञस्वभाव को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि ज्ञान सबको जानता है, पर सब रूप नहीं होता - यह ज्ञान का सहज स्वभाव है। अपने इस सहज स्वभाव में एकत्व धारण करनेवाला ज्ञान जब निज में लीन हो जाता है तो सर्वज्ञता प्रगट हो जाती है। सर्वज्ञता प्रगट होने पर ज्ञान के साथ अनन्त गुण पूर्णत: प्रगट हो जाते हैं और फिर अनन्तकाल तक पूर्ण ही रहते हैं। जब आत्मा स्वयं में अपनापन स्थापित करके स्वयं में लीन होता है, तब मानो छूटने योग्य सब छूट गया है और पाने योग्य सब पा लिया है। अब कुछ करने को शेष नहीं रहता। अत: अब विकल्पात्मक प्रतिक्रमणादिक करने की भी आवश्यकता नहीं रहती; क्योंकि इस शुद्धोपयोग की दशा में सभी धर्म समाहित हो जाते हैं। ___ इसप्रकार सम्पूर्ण प्रकरण का उपसंहार यह है कि त्रिकाल संबंधी दुष्कृतों के विकल्पात्मक व्यवहार प्रतिक्रमणादि की उपयोगिता तभीतक है; जबतक कि यह आत्मा स्वयं में समा नहीं जाता, शुद्धोपयोगरूप पूर्णत: परिणमित नहीं हो जाता है। जब यह आत्मा पूर्णत: शुद्धोपयोगरूप परिणमित हो जाता है; तब तो अन्तर्मुहूर्त में ही वीतरागी-सर्वज्ञ हो जाता है, अनन्तसुखी हो जाता है। (अनुष्टुभ् ) व्यतिरिक्तं परद्रव्यादेवं ज्ञानमवस्थितम्। कथमाहारकं तत्स्यायेन देहोऽस्य शंक्यते ।।२३७।। अत्ता जस्सामुत्तो ण हु सो आहारगो हवदि एवं । आहारो खलु मुत्तो जम्हा सो पोग्गलमओ दु॥४०५।। ण वि सक्कदि घेत्तुं जंण विमोत्तुं जं च जं परद्दव्वं । सो को वि य तस्स गुणो पाउगिओ विस्ससो वा वि॥४०६॥ तम्हा दु जो विसुद्धो चेदा सो णेव गेण्हदे किंचि । णेव विमुंचदि किंचि वि जीवाजीवाण दव्वाणं ।।४०७।। यह शुद्धोपयोगरूप परिणमित होना ही निश्चयप्रतिक्रमणादि हैं। सभी धर्म इसी में समाहित हैं। यही एकमात्र करने योग्य कार्य है। इसके अतिरिक्त जिन भावों को धर्म कहा जाता है, वे इसके सहचारी होने से धर्म कहे जाते हैं। अब आगामी गाथाओं का सूचक कलश काव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - ( सोरठा )
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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