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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
५३५ इन गाथाओं में से किसी भी रूप में यह ध्वनि नहीं निकलती है कि आत्मा इन्हें जानता ही नहीं है या इन्हें जानना आत्मा का स्वभाव नहीं: विभाव है. अपराध है।
दूसरी बात ध्यान देने योग्य यह है कि अन्तिम गाथा में सम्यग्दर्शन, अंगपूर्वगत सूत्र, संयम, धर्म-अधर्म और प्रव्रज्या को आत्मा से अनन्य अर्थात् आत्मा ही कहा गया है। ___ गजब की बात तो यह है कि परद्रव्यों से भिन्नता और निज पर्यायों से अभिन्नता - इन दोनों को ही निश्चयसाधित कहकर निश्चयनय का कथन बताया गया है। इन्हीं के आधार पर अर्थात् सर्व परद्रव्यों से व्यतिरेक और सर्वदर्शनादि जीवस्वभावों से अव्यतिरेक के द्वारा अतिव्याप्ति और अव्याप्ति दोषों से रहितपना सिद्ध करके निश्चल अनुभव करने की प्रेरणा दी गई है। ___ मूल बात यह है कि इस सम्पूर्ण प्रकरण में परज्ञेयों से भिन्नता की बात ही मुख्य है; उन्हें आत्मा जानता ही नहीं है - यह बात बिलकुल ही नहीं है।। अब इसी भाव के पोषक कलशरूप काव्य कहते हैं, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) है अन्य द्रव्यों से पथकविरहित ग्रहण अर त्याग से। यहज्ञाननिधिनिज में नियत वस्तुत्वकोधारण किये। है आदि-अन्त विभाग विरहित स्फुरित आनन्दघन । होसहज महिमा प्रभाभास्वर शुद्ध अनुपम ज्ञानघन ।।२३५।।
(उपजाति) उन्मुक्तमुन्मोच्यमशेषतस्तत् तथात्तमादेयमशेषतस्तत् । यदात्मनः संहृतसर्वशक्ते: पूर्णस्य संधारणमात्मनीह ।।२३६।।
जिनने समेटा स्वयं ही सब शक्तियों को स्वयं में। सब ओर से धारण किया हो स्वयं को ही स्वयं में।। मानो उन्हीं ने त्यागने के योग्य जो वह तज दिया।
अर जो ग्रहणके योग्य वह सब भी उन्हीं ने पा लिया ।।२३६ ।। अन्य द्रव्यों से भिन्न, अपने में ही नियत, पृथक् वस्तुत्व को धारण करता हुआ, ग्रहण-त्याग से रहित यह अमल ज्ञान (आत्मा) इसप्रकार अनुभव में आता है कि जिसकी आदि, मध्य और अन्त रूप विभागों से रहित सहज फैली हुई प्रभा के द्वारा दैदीप्यमान शुद्धज्ञानघनरूप महिमा नित्य उदित रहे।
सर्व शक्तियों को स्वयं में समेट लिया है, जिसने ऐसे इस आत्मा के द्वारा पूर्ण आत्मा का आत्मा में धारण करना ही छोड़ने योग्य सभी को छोड़ना और ग्रहण करने योग्य सभी को ग्रहण करना है।
इसप्रकार इन कलशों में इस सम्पूर्ण प्रकरण का उपसंहार है। पहले प्रतिक्रमण, आलोचना और