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तात्पर्य यह है कि निश्चय से विचार करें तो ज्ञान परद्रव्यों से भिन्न ही है ।
अब यह निश्चित करते हैं कि जीव ही एक ज्ञान है; क्योंकि जीव चेतन है; इसलिए ज्ञान के और जीव के अव्यतिरेक ( अभेद ) है ।
समयसार
इस बात की रंचमात्र भी आशंका नहीं करना चाहिए कि ज्ञान और जीव में किंचित्मात्र भी व्यतिरेक होगा; क्योंकि जीव स्वयं ही ज्ञान है। इसप्रकार ज्ञान और जीव के अभिन्न होने से ज्ञान ही सम्यग्दृष्टि है, ज्ञान ही संयम है, ज्ञान ही अंगपूर्वरूप सूत्र है, ज्ञान ही धर्म-अधर्म (पुण्यपाप) है, ज्ञान ही प्रव्रज्या है ।
इसप्रकार ज्ञान का जीव की पर्यायों के साथ भी अव्यतिरेक (अभेद) निश्चयसाधित देखना चाहिए। तात्पर्य यह है कि जीवपर्यायों का जीव के साथ अभेद निश्चय से ही है ।
इसप्रकार सर्व परद्रव्यों के साथ व्यतिरेक और सर्व दर्शनादि जीवस्वभावों के साथ अव्यतिरेक के द्वारा अतिव्याप्ति और अव्याप्ति को दूर करते हुए; अनादि विभ्रम के कारण होनेवाले पुण्यपाप एवं शुभ-अशुभरूप धर्म-अधर्मात्मक परसमय को दूर करके, स्वयं ही निश्चयचारित्ररूप प्रव्रज्या को प्राप्त करके, दर्शन - ज्ञान - चारित्र में स्थितिरूप स्वसमय को प्राप्त करके, मोक्षमार्ग को अपने में ही परिणत करके, जिसने सम्पूर्ण विज्ञानघनस्वभाव को प्राप्त किया है - ऐसे त्याग-ग्रहण से रहित साक्षात् समयसारभूत, परमार्थरूप एक शुद्धज्ञान को निश्चल देखना चाहिए अर्थात् प्रत्यक्ष स्वसंवेदन से निश्चल अनुभव करना चाहिए।'
( शार्दूलविक्रीडित )
अन्येभ्यो व्यतिरिक्तमात्मनियतं विभ्रत्पृथग्वस्तुतामादानोज्झनशून्यमेतदमलं ज्ञानं तथावस्थितम् । मध्याद्यन्त-विभागमुक्त - सहजस्फार - प्रभाभासुरः शुद्धज्ञानघनो यथाऽस्य महिमा नित्योदितस्तिष्ठति ।। २३५ ।।
उक्त सम्पूर्ण विश्लेषण पर दृष्टिपात करने पर एक बात अत्यन्त स्पष्टरूप से उभर कर सामने आती है कि इन गाथाओं में उन सभी परपदार्थों को ज्ञानस्वभावी आत्मा से भिन्न बताया गया है; जो हैं तो ज्ञेय; पर जिन्हें भ्रम से ज्ञान समझ लिया जाता है।
पिछली गाथाओं में शुभाशुभक्रियाओं और शुभाशुभभावों के कर्तृत्व- भोक्तृत्व का निषेध किया गया है और यहाँ इन गाथाओं में ज्ञेयपदार्थों से एकत्व - ममत्व का निषेध किया जा रहा है ।
शास्त्र, शब्द, रूप, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, कर्म, धर्म, अधर्म, काल, आकाश और अध्यवसान (मिथ्यात्व) - इन सभी में ज्ञानत्व (आत्मापन) का निषेध किया गया है।
ये सभी आत्मा के ज्ञेय हैं। इनसे आत्मा का ज्ञेय-ज्ञायक संबंध के अलावा कोई संबंध नहीं है; फिर भी अज्ञानीजन इनमें अपनापन स्थापित कर लेते हैं; किन्तु ज्ञानीजन यह भलीभाँति जानते हैं कि इनसे आत्मा का कोई भी संबंध नहीं है।
ये जो परपदार्थ जानने में आते हैं, सो इनको जानना भी आत्मा के सहजस्वभाव का ही सहज परिणमन है ।