________________
सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
अध्यवसान अन्य है - ऐसा जिनदेव कहते हैं ।
चूँकि जीव निरन्तर जानता है; इसलिए यह ज्ञायक जीव ज्ञानी है, ज्ञानस्वरूप है और ज्ञान ज्ञायक से अव्यतिरिक्त है, अभिन्न है - ऐसा जानना चाहिए।
५३३
बुधजन (ज्ञानीजन) ज्ञान को ही सम्यग्दृष्टि, संयम, अंगपूर्वगत सूत्र, धर्म-अधर्म (पुण्यपाप) और दीक्षा मानते हैं।
आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"श्रुत ( वचनात्मक द्रव्यश्रुत) ज्ञान नहीं है; क्योंकि श्रुत अचेतन है; इसलिए ज्ञान के और श्रुत के व्यतिरेक (भिन्नता) है । शब्द ज्ञान नहीं है; क्योंकि शब्द अचेतन है; इसलिए ज्ञान के और शब्द के व्यतिरेकभिन्नता है । रूप ज्ञान नहीं है; क्योंकि रूप अचेतन है; इसलिए ज्ञान के और रूप के व्यतिरेकभिन्नता है । वर्ण ज्ञान नहीं है; क्योंकि वर्ण अचेतन है; इसलिए ज्ञान के और वर्ण के व्यतिरेकभिन्नता है । गंध ज्ञान नहीं है; क्योंकि गंध अचेतन है; इसलिए ज्ञान के और गंध के व्यतिरेकभिन्नता है।
रस ज्ञान नहीं है; क्योंकि रस अचेतन है; इसलिए ज्ञान के और रस के व्यतिरेकभिन्नता है । स्पर्श ज्ञान नहीं है; क्योंकि स्पर्श अचेतन है; इसलिए ज्ञान के और स्पर्श के व्यतिरेकभिन्नता है । कर्म ज्ञान नहीं है; क्योंकि कर्म अचेतन है; इसलिए ज्ञान के और कर्म के व्यतिरेकभिन्नता है । धर्म ज्ञान नहीं है; क्योंकि धर्म अचेतन है; इसलिए ज्ञान के और धर्म के व्यतिरेकभिन्नता है । अधर्म ज्ञान नहीं है; क्योंकि अधर्म अचेतन है; इसलिए ज्ञान के और अधर्म के व्यतिरेक
न कालो ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानकालयोर्व्यतिरेकः । नाकाशं ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानाकाशयोर्व्यतिरेकः । नाध्यवसानं ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानाध्यवसानयोर्व्यतिरेकः ।
इत्येवं ज्ञानस्य सर्वैरेव परद्रव्यैः सह व्यतिरेको निश्चयसाधितो द्रष्टव्यः । अथ जीव एवैको ज्ञानं, चेतनत्वात्; ततो ज्ञानजीवयोरेवाव्यतिरेकः ।
न च जीवस्य स्वयं ज्ञानत्वात्ततो व्यतिरेकः कश्चनापि शंकनीयः । एवं तु सति ज्ञानमेव सम्यग्दृष्टिः, ज्ञानमेव संयमः, ज्ञानमेवांगपूर्वरूपं सूत्रं, ज्ञानमेव धर्माधर्मी, ज्ञानमेव प्रव्रज्येति ज्ञानस्य जीवपर्यायैरपि सहाव्यतिरेको निश्चयसाधितो द्रष्टव्यः ।
अथैवं सर्वपरद्रव्यव्यतिरेकेण सर्वदर्शनादिजीवस्वभावाव्यतिरेकेण वा अतिव्याप्तिमव्याप्तिं च परिहरमाणमनादिविभ्रममूलं धर्माधर्मरूपं परसमयमुद्वम्य स्वयमेव प्रव्रज्यारूपमापद्य दर्शनज्ञानचारित्रस्थितिरूपं स्वसमयमवाप्य मोक्षमार्गमात्यन्येव परिणतं कृत्वा समवाप्तसंपूर्णविज्ञानघनस्वभावं हानोपादानशून्यं साक्षात्समयसारभूतं परमार्थरूपं शुद्धं ज्ञानमेकमवस्थितं द्रष्टव्यम् ।
भिन्नता है । काल ज्ञान नहीं है; क्योंकि काल अचेतन है; इसलिए ज्ञान के और काल के व्यतिरेकभिन्नता है । आकाश ज्ञान नहीं है; क्योंकि आकाश अचेतन है; इसलिए ज्ञान के और आकाश के व्यतिरेकभिन्नता है । अध्यवसान ज्ञान नहीं है; क्योंकि अध्यवसान अचेतन है; इसलिए ज्ञान के और अध्यवसान के व्यतिरेकभिन्नता है ।
इसप्रकार ज्ञान का अन्य सब परद्रव्यों के साथ व्यतिरेक निश्चयसाधित देखना चाहिए ।