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समयसार
स्पष्टतया नचाकर और निजरस से प्राप्त अपने स्वभाव को पूर्ण करके अपनी ज्ञानचेतना को आनन्दपूर्वक नचाते हुए अब से सदा काल प्रशमरस को पियो ।
इस कलश में तो मात्र इतना ही कहा गया है कि कर्मचेतना और कर्मफलचेतनारूप अज्ञानचेतना का अभाव कर आत्मा के अनुभवरूप ज्ञानचेतना की भावना सदा भाओ - यही मार्ग है। यह ही वास्तविक धर्म है, शेष सब क्रियाकाण्ड का धर्म से कोई नाता नहीं है। धर्म के नाम पर उसमें समय और शक्ति गँवाना अमूल्य नरभव की हार है। इससे अधिक और क्या कहा जा सकता है ?
जो
वास्तविक धर्म भी यही है, यही करने योग्य एकमात्र कार्य है; इससे अतिरिक्त धर्म के नाम पर कुछ हो रहा है; वह धर्म नहीं है, कर्म ही है, कर्मबंध का ही कारण है, कर्मचेतना ही है, कर्मफलचेतना ही है, अज्ञानचेतना ही है; ज्ञानचेतना कदापि नहीं ।
एकमात्र ज्ञानचेतना ही धर्म है, धर्म का मार्ग है, मुक्ति का मार्ग है, साक्षात् मुक्ति ही है ।
यह सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार है। इसमें अभीतक यह बताया जा रहा था कि सर्वविशुद्धज्ञान पर का कर्ता - भोक्ता नहीं है ।
उक्त विषय को स्पष्ट करनेवाली गाथाओं की उत्थानिका के रूप में आचार्य अमृतचन्द्र ने एक कलश लिखा है। कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( वंशस्थ )
इत: पदार्थप्रथनावगुंठनाद् विना कृतेरेकमनाकुलं ज्वलत् । समस्तवस्तुव्यतिरेकनिश्चयाद्विवेचितं ज्ञानमिहावतिष्ठते ।। २३४।। सत्थं गाणं ण हवदि जम्हा सत्थं ण याणदे किंचि । तम्हा अण्णं णाणं अण्णं सत्थं जिणा बेंति ।। ३९० ।। सो णाणं ण हवदि जम्हा सद्दो ण याणदे किंचि । तम्हा अण्णं णाणं अण्णं सद्दं जिणा बेंति । । ३९१ । । रूवं णाणं ण हवदि जम्हा रूवं ण याणदे किंचि । तम्हा अण्णं णाणं अण्णं रूवं जिणा बेंति ।। ३९२ ।। aणो णाणं ण हवदि जम्हा वण्णो ण याणदे किंचि । तम्हा अण्णं णाणं अण्णं वण्णं जिणा बेंति ।। ३९३ ।।
अपने में ही मगन है, अचल अनाकुल ज्ञान ।
यद्यपि जाने ज्ञेय को, तदपि भिन्न ही जान ।। २३४ ।।
अब यहाँ से आगे की गाथाओं में कहते हैं कि समस्त वस्तुओं से भिन्नत्व के निश्चय के