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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
अज्ञानमय फल नहीं जो भोगते हैं।। अर तृप्त हैं स्वयं में चिरकाल तक वे।
निष्कर्म सखमय दशा को भोगते हैं।।२३२।। इसप्रकार मैं पूर्वोक्त समस्त प्रकार के कर्मों के फल का संन्यास (त्याग) करके चैतन्यलक्षण आत्मतत्त्व को अतिशयता से भोगता हूँ और उससे भिन्न अन्य सर्व क्रियाओं के विहार से मेरी वृत्ति पूर्णत: निवृत्त है। इस प्रकार आत्मतत्त्व के उपभोग में अचल - ऐसे मुझे यह काल की आवली जो कि प्रकटरूप से अनन्त है; वह आत्मतत्त्व के उपयोग में ही बहती रहे। उपयोग की प्रवृत्ति अन्य विषयों में कभी भी न जाये।
पहले अज्ञानभाव में उपार्जित कर्मरूपी विषवृक्षों के फल को जो पुरुष उनका स्वामी होकर नहीं भोगते और अपने में ही तृप्त हैं; वे पुरुष वर्तमान और भविष्य में रमणीय निष्कर्म सुखमय दशा को प्राप्त होते हैं। ___ पर में कुछ करने की वृत्ति कर्मचेतना है और अनुकूल-प्रतिकूल संयोगों में अनुकूलता-प्रतिकूलता का वेदन ही कर्मफलचेतना है। ये दोनों ही अज्ञानचेतना हैं तथा अपने आत्मा में अपनापन, उसे ही निज जानना और उसमें ही मग्न रहना ज्ञानचेतना है। कर्मचेतना और कर्मफलचेतना हेय है और ज्ञानचेतना उपादेय है; अत: धर्म है, मुक्ति का मार्ग है, मुक्तिस्वरूप है।
(स्रग्धरा) अत्यंतंभावयित्वा विरतिमविरतं कर्मणस्तत्फलाच्च प्रस्पष्टं नाटयित्वा प्रलयनमखिलाज्ञानसंचेतनायाः। पूर्णं कृत्वा स्वभावं स्वरसपरिगतं ज्ञानसंचेतनां स्वां
सानंदं नाटयंत: प्रशमरसमित: सर्वकालं पिबंतु ।।२३३।। अत: यहाँ कर्मचेतना और कर्मफलचेतना के त्याग की भावना भाकर अज्ञानचेतना को जड़मूल से उखाड़कर ज्ञानचेतना में मग्न रहने की चर्चा करने के उपरान्त इस सम्पूर्ण प्रकरण के उपसंहार के रूप में आत्मख्याति में एक कलश लिखा गया है।
ध्यान रहे, विगत दो कलश कर्मफलचेतना के उपसंहार के थे और प्रस्तुत कलश सम्पूर्ण प्रकरण के उपसंहार का कलश है। कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(वसंततिलका ) रे कर्म कर्मफल से संन्यास लेकर।
सदज्ञान चेतना को निज में नचाओ।। प्याला पियो नित प्रशमरस का निरन्तर ।
सुख में रहो अभी से चिरकाल तक तुम ।।२३३।। कर्म और कर्मफल से अत्यन्त विरक्तिभाव को भाकर, समस्त अज्ञानचेतना के नाश को