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समयसार
___ १४७. मैं उपभोगान्तराय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा
का ही संचेतन करता हूँ। ____१४८. मैं वीर्यान्तराय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। ___ उक्त १४८ बोलों पर ध्यान देने पर एक बात स्पष्टरूप से नजर आती है कि प्रत्येक बोल के उत्तरार्ध में यह कहा गया है कि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ तथा पूर्वार्द्ध में क्रमश: १४८ कर्मप्रकृतियों के नाम देकर यह कहा गया है कि मैं इनके फल को नहीं भोगता हूँ। ___ मात्र कर्मप्रकृति के नाम परिवर्तन के साथ एक ही बात को १४८ बार दुहराया गया है। इसका एकमात्र हेतु कर्मफलचेतना के त्याग की एवं ज्ञानचेतना की भावना को बारम्बार नचाना ही है; क्योंकि साक्षात् मुक्ति का मार्ग इसप्रकार की भावना की प्रबलता ही है।
इसप्रकार यहाँ प्रत्येक कर्म का नाम लेकर स्वरूप स्पष्ट करते हुए, उसके फल के त्याग की भावना भायी गई है।
इसके बाद कर्मफलचेतना के त्याग की भावना के उपसंहाररूप में दो कलश काव्य दिये गये हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(वसंततिलका) निःशेष-कर्मफल-संन्यस-नान्ममैवं सर्वक्रियांतर-विहार-निवृत्त-वृत्तेः। चैतन्यलक्ष्म भजतो भृशमात्मतत्त्वं कालावलीयमचलस्य वहत्वनंता ।।२३१।। यः पूर्वभावकृतकर्मविषद्रुमाणां भुंक्ते फलानि न खलु स्वत एव तृप्तः।
आपात-काल-रमणीय-मुदर्क-रम्यं निष्कर्मशर्ममयमेति दशांतरं सः।।२३२॥
(रोला) सब कर्मों के फल से संन्यासी होने से।
आतम से अतिरिक्त प्रवृत्ति से निवृत्त हो ।। चिद्लक्षण आतम को अतिशय भोग रहा हूँ। यह प्रवृत्ति ही बनी रहे बस अमित कालतक ।।२३१।।
(वसंततिलका) रे पूर्वभावकृत कर्मजहरतरु के।