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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
( रोला) नष्ट हो गया मोहभाव जिसका ऐसा मैं।
करके प्रत्याख्यान भाविकर्मों का अब तो।। वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के।
____शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ||२२८॥ जिसका मोह नष्ट हो गया है - ऐसा मैं अब भविष्य के समस्त कर्मों का प्रत्याख्यान करके चैतन्यस्वरूप निष्कर्म आत्मा में आत्मा से ही निरन्तर वर्त रहा हूँ। इसप्रकार प्रत्याख्यानकल्प समाप्त हुआ।
कर्मचेतना से संन्यास की चर्चा १४७ भंगों और तीन कलशों के द्वारा विस्तार से करने के उपरान्त अब आत्मख्याति में उक्त सम्पूर्ण प्रकरण के उपसंहाररूप एक कलश लिखा गया है; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(रोला) तीन काल के सब कर्मों को छोड़ इसतरह।
परमशुद्धनिश्चयनय का अवलम्बन लेकर ।। निर्मोही हो वर्त रहा हँ स्वयं स्वयं के।
शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ॥२२९।। अथ सकलकर्मफलसंन्यासभावनां नाटयति -
(आर्या) विगलंतु कर्मविषतरुफलानि मम भुक्तिमन्तरेणैव ।
संचेतयेऽहमचलं चैतन्यात्मानमात्मानम् ।।२३०।। जिसका मिथ्यात्व नष्ट हो गया है- ऐसा शुद्धनयावलंबी अब मैं इसप्रकार से तीनों कालसंबंधी समस्त कर्मों को दूर करके सर्वविकारों से रहित चैतन्यमात्र आत्मा का अवलम्बन करता हूँ।
उक्त सम्पूर्ण कथन के मंथन करने पर एक बात स्पष्ट होती है कि यहाँ दुष्कृत शब्द का अर्थ पापक्रिया और पापभाव मात्र नहीं है; अपितु सम्पूर्ण प्रकार की शुभाशुभ क्रियायें और शुभाशुभभाव है; क्योंकि यहाँ निश्चय प्रतिक्रमण, निश्चय आलोचना और निश्चय प्रत्याख्यान का स्वरूप स्पष्ट किया जा रहा है।
यद्यपि व्यवहार प्रतिक्रमण, व्यवहार आलोचना और व्यवहार प्रत्याख्यान में अशुभ क्रिया और अशुभभावों का निषेध कर शुभक्रिया और शुभभाव करने की बात भी आती है; तथापि यहाँ तो यह कहा जा रहा है कि तीनों कालों संबंधी समस्त शुभाशुभ क्रियाओं और समस्त शुभाशुभभावों के अभावपूर्वक शुद्धोपयोगरूपदशा होना ही वास्तविक प्रतिक्रमण है, वास्तविक आलोचना है और वास्तविक प्रत्याख्यान है।
यदि आप ध्यान से देखेंगे तो यहाँ एक बात अत्यन्त स्पष्टरूप से दिखाई देगी कि उक्त पाँचों कलशों की अन्तिम पंक्ति में निष्कर्म स्थिति के अवलम्बन की बात कही गई है, चैतन्य आत्मा में