________________
समयसार
५१२ नित्य वर्तने की बात कही गई है।
इसप्रकार कर्मचेतना के त्यागपूर्वक होनेवाले ज्ञानचेतना के नृत्य की चर्चा के उपरान्त अब कर्मफल के त्यागरूप ज्ञानचेतना के नृत्य के स्वरूप को प्रस्तुत करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र सबसे पहले एक कलश काव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(रोला) कर्म वृक्ष के विषफल मेरे बिन भोगे ही।
खिर जायें बस यही भावना भाता हूँ मैं ।। क्योंकि मैं तो वर्त रहा हूँ स्वयं स्वयं के।
शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ।।२३०।। मैं अपने चैतन्यस्वरूप आत्मा का निश्चलता से संचेतन करता हूँ, अनुभव करता हूँ; इससे मेरे कर्मरूपी विषवृक्ष के समस्त फल बिना भोगे ही खिर जायें - मैं ऐसी भावना करता हूँ। ___ ग्रन्थ के आरंभ में ही कहा था कि हमारे जीवन में एक मोह ही नाचता है। कर्मचेतना और कर्मफलचेतना का होना ही मोह का नृत्य है और इन दोनों का अभाव होकर ज्ञानचेतना का होना ही ज्ञान का नृत्य है।
नाहं मतिज्ञानावरणीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१। नाहं श्रुतज्ञानावरणी-यकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।२। नाहमवधिज्ञानावरणीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।३। नाहं मन:पर्य यज्ञानावरणीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मा- नमेव संचेतये ।४। नाहं केवलज्ञानावरणीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।।
नाहं चक्षुर्दर्शनावरणीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये।६। नाहमचक्षुर्दर्शनावरणीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।७। नाहमवधिदर्शनावरणीयकर्मफलं भुंजे,
कर्मचेतना से संन्यास की चर्चा में मन-वचन-काय और कृत-कारित-अनुमोदना से तीनों कालों के शुभाशुभभावों के कर्तृत्व के त्याग की बात कही थी और अब यहाँ कर्मफलचेतना के संन्यास की चर्चा में बिना किसी भेदभाव के आठों कर्मों की एक सौ अड़तालीस कर्म प्रकृतियों के - जिसमें तीर्थंकर नामकर्म जैसी पुण्यप्रकृतियाँ भी शामिल हैं - फल के भोक्तृत्व की भावना के त्याग की बात कही जा रही है।
इस कलश के तत्काल बाद आचार्यदेव उन १४८ प्रकृतियों के फल के भोक्तृत्व से संन्यास की बात स्वयं पृथक्-पृथक् रूप से कर रहे हैं कि जिससे कोई भ्रम न रह जाये।।
ध्यान रहे, यहाँ तीर्थंकर नामकर्म के फल के अभोक्तृत्व की भावना मिथ्यात्व के अभोक्तृत्व की भावना के समान ही, दोनों में किसी भी प्रकार का अन्तर डाले बिना भा रहे हैं।