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पूर्वरंग
( अनुष्टुभ् )
अत: शुद्धनयायत्तं प्रत्यग्ज्योतिश्चकास्ति तत् । नवतत्त्वगतत्वेऽपि यदेकत्वं न मुंचति ॥७॥ भूदत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च । आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ।। १३ ।।
कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
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( दोहा )
शुद्धनयाश्रित आतमा, प्रगटे ज्योतिस्वरूप । नवतत्त्वों में व्याप्त पर, तजे न एकस्वरूप ।।७।।
अतः शुद्धtय के आश्रय से पर से भिन्न जो आत्मज्योति प्रगट होती है; वह नवतत्त्वों को प्राप्त होकर भी एकत्व को कभी नहीं छोड़ती ।
नौ तत्त्वों में एक आत्मा ही प्रकाशमान है; क्योंकि नौ तत्त्वरूप होकर भी उसने अपने शुद्ध नय के विषयभूत सामान्य, नित्य, अभेद एवं एक स्वभाव को नहीं छोड़ा है।
छठवें कलश में कहा गया था कि हमें नौ तत्त्व की सन्ततिवाला व्यवहारसम्यग्दर्शन नहीं चाहिए, हमें तो शुद्ध के विषयभूत भगवान आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाला निश्चयसम्यग्दर्शन ही अभीष्ट है।
अत: यहाँ यह कहा जा रहा है कि नौ तत्त्वों में भी एक आत्मज्योति ही प्रकाशमान है और वह नौ तत्त्वों में जाकर भी एकत्व को नहीं छोड़ती है ।
तात्पर्य यह है कि निश्चय और व्यवहारसम्यग्दर्शन अलग-अलग नहीं होते। सम्यग्दर्शन तो एक ही है और वह शुद्धनय के विषयभूत आत्मा के आश्रय से ही उत्पन्न होता है।
उक्त निश्चयसम्यग्दर्शन के धारक को नवतत्त्वों की भी सच्ची श्रद्धा होती है अर्थात् वे जैसे हैं, उनकी वैसी ही श्रद्धा होती है । निश्चयसम्यग्दृष्टि की नवतत्त्वों सम्बन्धी उक्त श्रद्धा को ही व्यवहारसम्यग्दर्शन कहते हैं।
सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा के आत्मश्रद्धान को निश्चयसम्यग्दर्शन और नवतत्त्व के श्रद्धान को व्यवहारसम्यग्दर्शन कहा जाता है ।
अगली ही गाथा में यह कहने जा हैं कि भूतार्थनय से जाने हुए नवतत्त्व ही सम्यग्दर्शन हैं । सर्वप्रथम इस तेरहवीं गाथा में यह बताते हैं कि भूतार्थनय से जाने हुए जीवादि नवतत्त्वही सम्यग्दर्शन हैं। मूल गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है
( हरिगीत )
चिदचिदास्रव पाप-पुण्य शिव बंध संवर निर्जरा ।
तत्त्वार्थ ये भूतार्थ से जाने हुए सम्यक्त्व हैं ।। १३ ।।
भूतार्थ से जाने हुए जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष - ये नवतत्त्व ही सम्यग्दर्शन हैं।