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समयसार
(शार्दूलविक्रीडित) एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यांतरेभ्य: पृथक् । सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं
तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसंततिमिमामात्मायमेकोऽस्तु नः।।६।। जिसप्रकार बीमारी से उठे अशक्त व्यक्ति को कमजोरी के कारण चलने-फिरने में लाठी का सहारा लेना पड़ता है; पर उसकी भावना तो यही रहती है कि कब इस लाठी का आश्रय छूटे। वह यह नहीं चाहता कि मुझे सदा ही यह सहारा लेना पड़े।
उसीप्रकार व्यवहार का सहारा लेते हुए भी कोई आत्मार्थी यह नहीं चाहता कि उसे सदा ही यह सहारा लेना पड़े। वह तो यही चाहता है कि कब इसका आश्रय छूटे और कब मैं अपने में समा जाऊँ।
बस यही भाव उक्त छन्द में व्यक्त किया गया है। अब आगामी कलश में निश्चयसम्यक्त्व का स्वरूप कहते हैं। कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) नियत है जो स्वयं के एकत्व में नय शुद्ध से। वह ज्ञान का घनपिण्ड पूरण पृथक् है परद्रव्य से ।। नवतत्त्व की संतति तज बस एक यह अपनाइये।
इस आतमा का दर्श दर्शन आतमा ही चाहिए।।६।। शुद्धनय से ज्ञान के घनपिण्ड, स्वयं में परिपूर्ण, अपने गुण-पर्यायों में व्याप्त, एकत्व में नियत, शुद्धनय के विषयभूत इस भगवान आत्मा को परद्रव्यों और उनके भावों से पृथक् देखना निश्चय सम्यग्दर्शन है। बस यही आत्मा मैं हूँ अथवा ऐसा ही आत्मा मैं हूँ और इसके दर्शन का नाम ही सम्यग्दर्शन है। - ऐसा ज्ञानी जानते हैं। इसलिए ज्ञानीजन भावना भाते हैं कि इस नवतत्त्व की परिपाटी को छोड़कर हमें तो एक आत्मा ही प्राप्त हो।
तात्पर्य यह है कि हमें तो एक आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाला निश्चय सम्यग्दर्शन ही इष्ट है; नवतत्त्व की विकल्पात्मक श्रद्धावाले व्यवहार सम्यग्दर्शन से कोई प्रयोजन नहीं।
आत्मानुभव के लिए परमागम में दृष्टि के विषयभूत भगवान आत्मा का जो स्वरूप बताया गया है, उसे आगम के अभ्यास से एवं गुरुमुख से सुनकर अच्छी तरह समझना चाहिए। राजमार्ग यही है। ___ अब आगामी कलश में यह कहते हैं कि शुद्धनय के आश्रय से परद्रव्यों से भिन्न जो आत्मज्योति प्रगट होती है, वह आत्मज्योति नवतत्त्वों को प्राप्त होकर भी एकत्व को नहीं छोड़ती है।