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पूर्वरंग वमन करनेवाले वे पुरुष कुनय से खण्डित नहीं होनेवाले, परमज्योतिस्वरूप अत्यन्त प्राचीन अनादिकालीन समयसाररूप भगवान आत्मा को तत्काल ही देखते हैं अर्थात् उसका अनुभव करते हैं।
(मालिनी) व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपिप्राक्पदव्यामिह निहितपदानां हंत हस्तावलंबो तदपि परममर्थं चिच्चमत्कारमात्रं
परविरहितमंत: पश्यतां नैष किंचित् ।।५।। यह कलश पीठिका के उपसंहाररूप कलश है। इस कलश में यह कहा गया है कि जो पुरुष जिनवचनों में रमण करते हैं, वे तत्काल ही आत्मा का अनुभव करते हैं।
यहाँ जिनवचनों में रमण करने का अर्थ मात्र जिनवाणी का पठन-पाठन करना ही नहीं है; अपितु जिनवाणी में प्रतिपादित शुद्धनय के विषयभूत त्रिकालीध्रुव, नित्य, अखण्ड, अभेद, एक निज भगवान आत्मा में अपनापन स्थापित करना, उसे ही निज जानना और उसमें जमना-रमना है; क्योंकि आत्मानुभव करने की यही प्रक्रिया है।
आत्मकल्याण की भावना से जिनवाणी का अत्यन्त रुचिपूर्वक स्वाध्याय करना, पढ़नापढ़ाना, लिखना-लिखाना; उसके अर्थ का विचार करना, मंथन करना; परस्पर चर्चा करना, प्रश्नोत्तर करना आदि व्यवहार से जिनवचनों में रमण करना है और जिनवाणी में प्रतिपादित शुद्धनय की विषयभूत आत्मवस्तु का अनुभव करना निश्चय से जिनवचनों में रमण करना है।
व्यवहारजिनवचनों में रमण करना देशनालब्धि का प्रतीक है और निश्चयजिनवचनों में रमण करना करणलब्धि का प्रतीक है।
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि स्याद्वाद ही एक ऐसा अमोघ उपाय है कि जिसके द्वारा परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाला वस्तुस्वरूप सहजभाव से स्पष्ट हो जाता है।
यहाँ तक समयसार की पीठिका है, जो पूर्वरंग के अंतर्गत ही आती है।
इस पीठिका में संक्षेप में वह सब आ गया है; जो आगे सम्पूर्ण समयसार में विस्तार से कहनेवाले हैं । आचार्य जयसेन के अनुसार संक्षिप्त रुचिवालों के लिए तो समयसार यहीं समाप्त हो जाता है। आगे जो कुछ भी कहा जा रहा है; वह सब विस्तार रुचिवालों के लिए ही है।
अब आगामी गाथाओं की उत्थानिकारूप तीन कलश हैं; जिनमें से प्रथम कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(रोला) ज्यों दुर्बल को लाठी है हस्तावलम्ब त्यों।
उपयोगी व्यवहार सभी को अपरमपद में।। पर उपयोगी नहीं रंच भी उन लोगों को।
जो रमते हैं परम-अर्थ चिन्मय चिद्घन में ।।५।। यद्यपि खेद है कि जिन्होंने पहली पदवी में पैर रखा है, उनके लिए व्यवहारनय हस्तावलम्ब है, हाथ का सहारा है; तथापि जो परद्रव्यों और उनके भावों से रहित, चैतन्यचमत्कारमात्र परम-अर्थ को अन्तर में अवलोकन करते हैं, उसकी श्रद्धा करते हैं, उसमें लीन होकर चारित्रभाव को प्राप्त होते हैं। उन्हें यह व्यवहारनय कुछ भी प्रयोजनवान नहीं है।