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________________ समयसार भिन्न-भिन्न एक-एक भावस्वरूप अनेक भावों का प्रकाशक व्यवहारनय विचित्र अनेक वर्णमालाओं के समान होने से जानने में आता हुआ उस काल प्रयोजनवान है; क्योंकि तीर्थ और तीर्थफल की ऐसी ही व्यवस्था है। उक्तं च - “जड़ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं ।।" (मालिनी) उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदांके जिनक्चसि स्मंते ये स्वयं कांतमोहाः । सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चै रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षंत एव ।।४।। कहा भी है - ( हरिगीत) यदि चाहते हो जैनदर्शन प्रवर्ताना जगत में। व्यवहार-निश्चयनयों में से किसी को छोड़ो नहीं।। व्यवहारनय बिन तीर्थ का अर नियतनय बिन तत्त्व का। ही लोप होगा इसलिए तुम किसी को छोड़ो नहीं।। यदि तुम जिनमत का प्रवर्तन करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों नयों में से एक को भी मत छोड़ो; क्योंकि व्यवहारनय के बिना तीर्थ का एवं निश्चयनय के बिना तत्त्व का नाश हो जायेगा।" इसप्रकार इस बारहवीं गाथा में यह कहा गया है कि व्यवहारनय अभतार्थ है, असत्यार्थ है: तथापि वह भी कभी-कभी किसी-किसी को प्रयोजनवान है। निश्चय-व्यवहारनयों की उपयोगिता पर समुचित प्रकाश डालने के उपरान्त अब स्याद्वादांकित जिनवचनों में रमण करनेवाले सत्पुरुष ही समयसार को प्राप्त करते हैं - इसप्रकार के भावों से भरा हआ मंगल कलश स्थापित करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (रोला) उभयनयों में जो विरोध है उसके नाशक। स्याद्वादमय जिनवचनों में जो रमते हैं।। मोह वमन कर अनय-अखण्डित परमज्योतिमय। स्वयं शीघ्र ही समयसार में वे रमते हैं।।४।। जो पुरुष निश्चय और व्यवहार - इन दो नयों के प्रतिपादन में दिखाई देनेवाले विरोध को ध्वंस करनेवाले, स्याद्वाद से चिह्नित जिनवचनों में रमण करते हैं; स्वयं पुरुषार्थ से मिथ्यात्व का
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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