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________________ पूर्वरंग २९ यह व्यवहारनय किनको और कब प्रयोजनवान है ? - यह बताना ही बारहवीं गाथा का मूल प्रतिपाद्य है । मूल गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - अथ च केषांचित्कदाचित्सोऽपि प्रयोजनवान् । यतः - सुद्धा सुद्धादेसो णादव्वो परमभावदरिसीहिं । ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे ।। १२ ।। शुद्धः शुद्धादेशो ज्ञातव्यः परमभावदर्शिभिः । व्यवहारदेशिताः पुनर्ये त्वपरमे स्थिता भावे ।। १२ ।। ये खलु पर्यंतपाकोत्तीर्णजात्यकार्त्तस्वरस्थानीयं परमं भावमनुभवंति तेषां प्रथमद्वितीयाद्यनेकपाकपरंपरापच्यमानकार्त्तस्वरानुभवस्थानीयापरमभावानुभवनशून्यत्वाच्छुद्धद्रव्यादेशितया समुद्योतितास्खलितैकस्वभावैकभावः शुद्धनय एवोपरितनैकप्रतिवर्णिकास्थानीयत्वात्परिज्ञायमानः प्रयोजनवान् । ये तु प्रथमद्वितीयाद्यनेकपाकपरंपरापच्यमानकार्त्तस्वरस्थानीयमपरमं भावमनुभवति तेषां पर्यंतपाकोत्तीर्णजात्यकार्त्तस्वरस्थानीयपरमभावानुभवनशून्यत्वादशुद्धद्रव्यादेशितयोपदर्शित प्रतिविशिष्टैकभावानेकभावो व्यवहारनयो विचित्रवर्णमालिकास्थानीयत्वात्परिज्ञायमानस्तदात्वे प्रयोजनवान्, तीर्थतीर्थफलयोरित्थमेव व्यवस्थितत्वात् ।।१२।। ( हरिगीत ) परमभाव को जो प्राप्त हैं वे शुद्धनय ज्ञातव्य हैं। जो रहें अपरमभाव में व्यवहार से उपदिष्ट हैं ।। १२ ।। जो शुद्धनय तक पहुँचकर श्रद्धावान हुए तथा पूर्ण ज्ञान - चारित्रवान हो गये हैं, उन्हें शुद्धात्मा का उपदेश करनेवाला शुद्धनय जाननेयोग्य है और जो जीव अपरमभाव में स्थित हैं, श्रद्धा-ज्ञान -चारित्र के पूर्णभाव को नहीं पहुँच सके हैं, साधक-अवस्था में ही स्थित हैं, वे व्यवहारन द्वारा उपदेश करने योग्य हैं। इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं. " जो पुरुष अन्तिम पाक से उतरे हुए शुद्ध स्वर्ण के समान वस्तु के उत्कृष्टभाव का अनुभव करते हैं; उन्हें प्रथम, द्वितीय आदि पाकों की परम्परा से पच्यमान अशुद्ध स्वर्ण के समान अनुत्कृष्ट-मध्यम भावों का अनुभव नहीं होता। इसलिए उन्हें तो शुद्धद्रव्य का प्रतिपादक एवं अचलित-अखण्ड एकस्वभावरूप भाव का प्रकाशक शुद्धनय ही सबसे ऊपर की एक प्रतिवर्णिका समान होने से जानने में आता हुआ प्रयोजनवान है । परन्तु जो पुरुष प्रथम, द्वितीय आदि अनेक पाकों की परम्परा पच्यमान अशुद्धस्वर्ण के समान अनुत्कृष्ट-मध्यमभाव का अनुभव करते हैं; उन्हें अन्तिम ताव से उतरे हुए शुद्धस्वर्ण के समान उत्कृष्टभाव का अनुभव नहीं होता है; इसलिए उन्हें अशुद्धद्रव्य का प्रतिपादक एवं
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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