________________
२८
समयसार यहाँ शुद्धनय कतकफल के स्थान पर है; इसलिए जो शुद्धनय का आश्रय लेते हैं, वे ही सम्यक् अवलोकन करते हुए सम्यग्दृष्टि होते हैं; अन्य नहीं।
इसलिए कर्मों से भिन्न आत्मा को देखनेवालों को व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य नहीं है।"
दृष्टि के विषयभूत त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा का प्रतिपादक शुद्धनय (परमशुद्धनिश्चयनय) ही एक भूतार्थ है, सत्यार्थ है; शेष सभी नय व्यवहार होने से अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं। शुद्धनय अथवा शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा के आश्रय से ही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है; अत: एकमात्र वही उपादेय है।
उक्त संदर्भ में पण्डित जयचंदजी छाबड़ा के विचार दृष्टव्य हैं; जो इसप्रकार हैं -
“यहाँ व्यवहारनय को अभूतार्थ और शुद्धनय को भूतार्थ कहा है। जिसका विषय विद्यमान न हो, असत्यार्थ हो; उसे अभूतार्थ कहते हैं। शुद्धनय का विषय अभेद एकाकाररूप नित्य द्रव्य है; उसकी दृष्टि में भेद दिखाई नहीं देता; इसलिए उसकी दृष्टि में भेद अविद्यमान, असत्यार्थ ही कहा जाता है। ऐसा तो है नहीं कि भेदरूप कोई वस्तु ही न हो। यदि ऐसा मानेंगे तो जिसप्रका वेदान्त मतवाले भेदरूप अनित्य को मायास्वरूप कहते हैं, अवस्तु कहते हैं और अभेद-नित्यशुद्धब्रह्म को वस्तु कहते हैं, वैसा हमें भी मानना होगा। ऐसा मानने पर सर्वथा एकान्त शुद्धनय के पक्षरूप मिथ्यादृष्टित्व का प्रसंग आयेगा । इसलिए ऐसा स्वीकार करना ही ठीक है कि जिनवाणी स्याद्वादरूप है और प्रयोजन के अनुसार नयों को यथायोग्य मुख्य व गौण करके कथन करती है।
गहराई से समझने की बात यह है कि प्राणियों को भेदरूप व्यवहार का पक्ष तो अनादि से ही है और इसका उपदेश भी बहुधा सर्व प्राणी परस्पर करते हैं। जिनवाणी में भी व्यवहार का उपदेश हस्तावलम्बन जानकर बहुत किया है, किन्तु उसका फल तो संसार ही है। शुद्धनय का पक्ष तो कभी आया नहीं और उसका उपदेश भी विरल है। इसलिए उपकारी श्रीगुरु ने शुद्धनय के ग्रहण का फल मोक्ष जानकर उसका ही उपदेश प्रधानता से दिया है और कहा है कि शुद्धनय भूतार्थ है, सत्यार्थ है; इसके आश्रय करने से सम्यग्दृष्टि होता है। इसको जाने बिना जबतक जीव व्यवहार में मग्न है, तबतक आत्मा के ज्ञान-श्रद्धानरूप निश्चयसम्यग्दर्शन नहीं हो सकता है। - ऐसा जानना।”
अब यह प्रश्न फिर उपस्थित होता है कि जब शुद्धनय के आश्रय से ही सम्यग्दर्शन होता है, व्यवहार के आश्रय से नहीं; इसलिए प्रत्यगात्मदर्शियों के लिए व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य नहीं है तो फिर इस व्यवहारनय का उपदेश ही क्यों दिया जाता है ? __इस प्रश्न के उत्तर में बारहवीं गाथा में कहा गया है कि व्यवहारनय भी किन्हीं-किन्हीं को कभीकभी प्रयोजनवान होता है; इसलिए यह सर्वथा निषेध करने योग्य नहीं है और इसलिए जिनवाणी में इसका उपदेश दिया गया है।
१. नयों के गंभीर ज्ञान के लिए परमभावप्रकाशकनयचक्र का अध्ययन करना चाहिए। २. समयसार : गाथा ११ का भावार्थ।