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पूर्वरंग
'व्यवहारनय अभूतार्थ है, शुद्धनय भूतार्थ है' - ऐसा कहा गया है। जो जीव भूतार्थ का आश्रय लेता है, वह जीव निश्चय से सम्यग्दृष्टि होता है।
व्यवहारनयो हि सर्व एवाभूतार्थत्वादभूतमर्थं प्रद्योतयति, शुद्धनय एक एव भूतार्थत्वात् भूतमर्थं प्रद्योतयति।
तथा हि- यथा प्रबलपंकसंवलनतिरोहितसहजैकाच्छभावस्य पयसोनुभवितारः पुरुषाः पंकपयसोर्विवेकमकुर्वंतो बहवोनच्छमेव तदनुभवंति । केचित्तु स्वकरविकीर्णकतकनिपातमात्रोपजनितपंकपयोविवेकतया स्वपुरुषकाराविर्भावितसहजैकाच्छभावत्वादच्छमेव तदनुभवंति।
तथा प्रबलकर्मसंवलनतिरोहितसहजैकज्ञायकभावस्यात्मनोऽनुभवितारः पुरुषा आत्मकर्मणोर्विवेकमकुर्वतो व्यवहारविमोहितहृदया: प्रद्योतमानभाववैश्वरूप्यं तमनुभवति ।
भूतार्थदर्शिनस्तु स्वमतिनिपातितशुद्धनयानुबोधमात्रोपजनितात्मकर्मविवेकतया स्वपुरुषकाराविर्भावितसहजैकज्ञायकभावत्वात् प्रद्योतमानैकज्ञायकभावं तमनुभवंति।
तदन ये भूतार्थमाश्रयंति त एव सम्यक् पश्यंतःसम्यग्दृष्टयो भवंति, न पुनरन्ये, कतकस्थानीयत्वात् शुद्धनयस्य । अत: प्रत्यगात्मदर्शिभिर्व्यवहारनयो नानुसतव्यः ।।११।। उक्त गाथा का भाव स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में लिखते हैं -
"सब ही व्यवहारनय अभूतार्थ होने से अभूत (अविद्यमान-असत्य) अर्थ को प्रगट करते हैं। एक शुद्धनय ही भूतार्थ होने से भूत (विद्यमान-सत्य) अर्थ को प्रगट करता है।
अब इसी बात को उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हैं। यद्यपि प्रबल कीचड़ के मिलने से आच्छादित है निर्मलस्वभाव जिसका, ऐसे समल जल का अनुभव करनेवाले एवं जल और कीचड़ के विवेक से रहित अधिकांश लोग तो उस जल को मलिन ही अनुभव करते हैं।
वे यह नहीं समझ पाते कि स्वभाव से तो जल निर्मल ही है, मलिनता तो मात्र संयोग में है। इसकारण वे जल को ही मलिन मान लेते हैं; तथापि कुछ लोग अपने हाथ से डाले हए कतकफल के पड़ने मात्र से उत्पन्न जल-कीचड़ के विवेक से, अपने पुरुषार्थ से प्रगट किये हए निर्मलस्वभाव से उस जल को निर्मल ही अनुभव करते हैं।
तात्पर्य यह है कि अधिकांश लोग तो पंकमिश्रित जल को स्वभाव से मैला मानकर वैसा ही पी लेते हैं और अनेक रोगों से आक्रान्त हो दुःखी होते हैं; किन्तु कुछ समझदार लोग अपने विवेक से इस बात को समझ लेते हैं कि जल मैला नहीं है, इस मैले जल में जल जुदा है और मैल जुदा है तथा कतकफल के जरिये जल और मैल को जुदा-जुदा किया जा सकता है।
अत: वे स्वयं के हाथ से कतकफल डालकर मैले जल को इतना निर्मल बना लेते हैं कि उसमें अपना पुरुषाकार भी स्पष्ट दिखाई देने लगता है और उस जल को पीकर नीरोग रहते हैं, आरोग्यता का आनन्द लेते हैं।
इसीप्रकार प्रबल कर्मोदय के संयोग से सहज एक ज्ञायकभाव तिरोभूत (आच्छादित) हो गया है जिसका, ऐसे आत्मा का अनुभव करनेवाले एवं आत्मा और कर्म के विवेक से रहित, व्यवहारविमोहित चित्तवाले अधिकांश लोग तो आत्मा को अनेकभावरूप अशुद्ध ही अनुभव करते हैं; तथापि भूतार्थदर्शी लोग अपनी बुद्धि से प्रयुक्त शुद्धनय के प्रयोग से उत्पन्न आत्मा और कर्म के विवेक से अपने पुरुषार्थ द्वारा प्रगट किये गये सहज एक ज्ञायकभाव को शुद्ध ही अनुभव करते हैं, एक ज्ञायकभावरूप ही अनुभव करते हैं; अनेकभावरूप नहीं करते।