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समयसार ऐसा सिद्ध होने पर पारमार्थिक तथ्य सहज ही फलित हो गया कि जो आत्मा को जानता है, वही श्रुतकेवली है। परमार्थ एव । एवं ज्ञानज्ञानिनोर्भेदेन व्यपदिशता व्यवहारेणापि परमार्थमात्रमेव प्रतिपाद्यते, न किंचिदप्यतिरिक्तम्।
अथ च यः श्रुतेन केवलं शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति परमार्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वाद्यः श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति स श्रुतकेवलीति व्यवहारः परमार्थप्रतिपादकत्वेनात्मानं प्रतिष्ठापयति ।।९-१०॥ कुतो व्यवहारनयो नानुसतव्य इति चेत् -
ववहारो भूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ। भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो।।११।।
व्यवहारोऽभूतार्थो भूतार्थो दर्शितस्तु शुद्धनयः।
भूतार्थमाश्रितः खलु सम्यग्दृष्टिर्भवति जीवः ।।११।। इसप्रकार ज्ञान और ज्ञानी के भेद से कथन करनेवाला जो व्यवहारनय है, उससे भी मात्र परमार्थ ही कहा जाता है, अन्य कुछ नहीं।। __ 'जो श्रुतज्ञान से केवल शुद्ध आत्मा को जानते हैं, वे श्रुतकेवली हैं' - इस परमार्थ का प्रतिपादन अशक्य होने से 'जो सर्वश्रुत को जानते हैं, वे श्रुतकेवली हैं' - ऐसा व्यवहारकथन परमार्थ का ही प्रतिपादक होने से अपने को दृढ़तापूर्वक स्थापित करता है।"
ध्यान रहे - ये दोनों ही नय एकसाथ एक ही समय में एक ही व्यक्ति पर घटित होते हैं, अन्यअन्य व्यक्तियों पर नहीं, अन्य-अन्य समय पर भी नहीं। जो व्यक्ति जिस समय आत्मा को जानने के कारण निश्चयश्रुतकेवली है; वही व्यक्ति उसीसमय द्वादशांगरूप श्रुत का विशेषज्ञ होने के कारण व्यवहारश्रुतके वली भी है। इसीप्रकार जो व्यक्ति जिससमय द्वादशांग का पाठी होने से व्यवहारश्रुतकेवली है, वही व्यक्ति उसीसमय आत्मज्ञानी होने से निश्चयश्रुतकेवली भी है। उनमें न व्यक्तिभेद है और न समयभेद ही।
श्रुतकेवली कहलाने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि वे आत्मज्ञानी होने के साथसाथ द्वादशांगश्रुत के पाठी भी हों । यही कारण है कि पंचमकाल में अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के बाद अनेक स्वसंवेदी भावलिंगी संत हो गये हैं, पर श्रुतकेवली कोई नहीं हआ। ___ अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि जब व्यवहारनय ने परमार्थ प्रतिपादकत्व के कारण अपने को भली-भाँति स्थापित कर लिया है, तो फिर उसका अनुसरण क्यों नहीं करना चाहिए ? इस प्रश्न के उत्तरस्वरूप ही ११वीं गाथा का जन्म हुआ है, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) शुद्धनय भूतार्थ है अभूतार्थ है व्यवहारनय । भूतार्थ की ही शरण गह यह आतमा सम्यक् लहे ।।११।।