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________________ पूर्वरंग २५ समझें; उस पर गंभीरता से विचार करें और भगवान आत्मा की प्राप्ति के लिए उग्र पुरुषार्थ करें; क्योंकि मानव जीवन की सफलता आत्मानुभव करने में ही है। कथं व्यवहारस्य प्रतिपादकत्वमिति चेत् - जो हि सुदेणहिगच्छदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं । तं सुदकेवलिमिसिणो भांति लोयप्पदीवयरा ।। ९ ।। जो सुदणाणं सव्वं जाणदि सुदकेवलिं तमाहु जिणा । णाणं अप्पा सव्वं जम्हा सुदकेवली तम्हा ।। १० ।। जुम्मं ।। यो हि श्रुतेनाभिगच्छति आत्मानमिमं तु केवलं शुद्धम् । तं श्रुतकेवलिनमृषयो भांति लोकप्रदीपकराः ।। ९।। यः श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति श्रुतकेवलिनं तमाहुर्जिना: । ज्ञानमात्मा सर्वं यस्माच्छ्रुतकेवली तस्मात् ।। १० । । युग्मम् ।। यः श्रुतेन केवलं शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति तावत्परमार्थो, य: श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति स श्रुतकेवलीति तु व्यवहारः । तदत्र सर्वमेव तावत् ज्ञानं निरूप्यमाणं किमात्मा किमनात्मा ? न तावदनात्मा समस्तस्याप्यनात्मनश्चेतनेतरपदार्थपंचतयस्य ज्ञानतादात्म्यानुपपत्तेः । ततो गत्यंतराभावात् ज्ञानमात्मेत्यायाति । अत: श्रुतज्ञानमप्यात्मैव स्यात् । एवं सति यः आत्मानं जानाति स श्रुतकेवलीत्यायाति, स तु आठवीं गाथा में यह कहा गया है कि परमार्थ का प्रतिपादक होने से व्यवहारनय भी स्थापित करने योग्य है; परन्तु प्रश्न तो यह है कि व्यवहारनय परमार्थ का प्रतिपादक किसप्रकार है ? इस प्रश्न के उत्तर में ही ९वीं एवं १०वीं गाथायें लिखी गई हैं, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है ( हरिगीत ) श्रुतज्ञान से जो जानते हैं शुद्ध केवल आतमा । श्रुतकेवली उनको कहें ऋषिगण प्रकाशक लोक के ॥ ९ ॥ जो सर्वश्रुत को जानते उनको कहें श्रुतकेवली । सब ज्ञान ही है आतमा बस इसलिए श्रुतकेवली ।। १० ।। जो जीव श्रुतज्ञान 'के द्वारा केवल एक शुद्धात्मा को जानते हैं, उसे लोक के ज्ञाता ऋषिगण निश्चयश्रुतकेवली कहते हैं और जो सर्वश्रुतज्ञान को जानते हैं, उन्हें जिनदेव व्यवहारश्रुतकेवली कहते हैं; क्योंकि सब ज्ञान आत्मा ही तो है । उक्त गाथाओं के भाव को आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं। " जो श्रुतज्ञान के बल से केवल शुद्ध आत्मा को जानते हैं, वे श्रुतकेवली हैं - यह परमार्थ कथन है और जो सर्वश्रुतज्ञान को जानते हैं, वे श्रुतकेवली हैं - यह व्यवहार कथन है । अब यहाँ विचार करते हैं कि उपर्युक्त सर्वज्ञान आत्मा है कि अनात्मा ? अनात्मा कहना तो ठीक नहीं है; क्योंकि जड़ अनात्मा तो आकाशादि पाँच द्रव्य हैं, किन्तु उनका ज्ञान के साथ तादात्म्य नहीं है । अत: अन्य उपाय का अभाव होने से ज्ञान आत्मा ही है। • यही सिद्ध होता है; इसलिए यह सहज ही सिद्ध हो गया कि सर्वश्रुतज्ञान भी आत्मा ही है ।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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