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________________ ३४ समयसार भूतार्थेनाभिगता जीवाजीवौ च पुण्यपापं च । आस्रवसंवरनिर्जरा बंधो मोक्षश्च सम्यक्त्वम् ॥१३॥ अमूनि हि जीवादीनि नवतत्त्वानि भूतार्थेनाभिगतानि सम्यग्दर्शनं संपद्यंत एव, अमीषु तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तमभूतार्थनयेन व्यपदिश्यमानेषु जीवाजीवपुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबंधमोक्षलक्षणेषु नवतत्त्वेष्वेकत्वद्योतिना भूतार्थनयेनैकत्वमुपानीय शुद्धनयत्वेन व्यवस्थापितस्यात्मनोनुभूतेरात्मख्यातिलक्षणाया: संपद्यमानत्वात् । तत्र विकार्यविकारकोभयं पुण्यं तथा पापम्, आस्राव्यास्रावकोभयमास्रवः, संवार्यसंवारकोभयं संवरः, निर्जर्यनिर्जरकोभयं निर्जरा, बंध्यबंधकोभयं बंध:, मोच्यमोचकोभयं मोक्षः, स्वयमेकस्य पुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबंधमोक्षानुपपत्तेः । तदुभयं च जीवाजीवाविति । इस गाथा में सम्यग्दर्शन का स्वरूप तो बताया ही गया है, प्रकारान्तर से समयसार में आगे आनेवाली विषयवस्तु का संकेत भी कर दिया है, आगे के अधिकारों के नामोल्लेख भी कर दिये हैं । कर्ता-कर्म अधिकार एवं सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार को छोड़कर अन्य सभी अधिकारों के नाम भी आ ही गये हैं, अधिकारों का क्रम भी आ गया है। इस गाथा में तत्त्वों के नाम जिस क्रम से आये हैं, वही क्रम अधिकारों का है। इससे स्पष्ट है कि इस गाथा में तत्त्वों के नामों का जो क्रम है, वह छन्दानुरोध से नहीं, अपितु बुद्धिपूर्वक रखा गया है। यह तेरहवीं गाथा एक ऐसी गाथा है कि जिसमें आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मख्याति टीका के बीच में भी एक कलश दिया है। सामान्यरूप से आचार्य अमृतचन्द्र यह पद्धति अपनाते हैं कि पहले गद्य में टीका लिखते हैं और यदि आवश्यकता समझें तो अन्त में कलश लिखते हैं; पर इस गाथा की टीका में मध्य में भी कलश दिया है और अन्त में भी । यहाँ हम भी आत्मख्याति को इसीप्रकार विभाजित करके प्रस्तुत कर रहे हैं । इस गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - "भूतार्थनय से जाने हुए ये जीवादि नवतत्त्व सम्यग्दर्शन ही हैं; क्योंकि तीर्थ ( व्यवहारधर्म ) की प्रवृत्ति के लिए अभूतार्थनय से प्रतिपादित जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष नामक नवतत्त्वों में एकत्व प्रगट करनेवाले भूतार्थनय के द्वारा एकत्व प्राप्त करके शुद्धनयात्मक आत्मख्याति प्रगट होती है अर्थात् आत्मानुभूति प्राप्त होती है । इनमें विकारी होने योग्य विकार्य भाव और विकार करनेवाला विकारक कर्म - दोनों पुण्य हैं और दोनों ही पाप हैं, आस्रवरूप होने योग्य आस्राव्य भाव और आस्रव करनेवाला आस्रावक कर्म - दोनों ही आस्रव हैं, संवररूप होने योग्य संवार्य भाव और संवर करनेवाला संवारक कर्म - दोनों ही संवर हैं, निर्जरारूप होने योग्य निर्जर्य भाव और निर्जरा करनेवाला निर्जरक कर्म - दोनों ही निर्जरा हैं, बंधनरूप होने योग्य बंध्य भाव और बंधन करनेवाला बंधक कर्म - दोनों ही बंध हैं तथा मोक्षरूप होने योग्य मोच्य भाव और मोक्ष करनेवाला मोचक कर्म दोनों ही मोक्ष हैं; क्योंकि दोनों में से किसी एक का अपने-आप अकेले पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्षरूप होना संभव नहीं है। वे दोनों जीव और अजीव हैं । तात्पर्य यह है कि प्रत्येक युगल में से पहला जीव है और दूसरा अजीव है । -
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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