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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
हैं बाँधते वे जीव दु:ख के बीज वसुविध करम क । । । ३ ८ ७ । । जो कर्मफल को वेदते माने करमफल मैं किया। हैं बाँधते वे जीव दुःख के बीज वसुविध करम को ।।३८८।। जो कर्मफल को वेदते हों सुखी अथवा दुःखी हों।
हैं बाँधते वे जीव दु:ख के बीज वसविध करम को ।।३८९।। जो आत्मा कर्म के फल का वेदन करता हआ कर्म के फल को निजरूप करता है अर्थात् उसमें एकत्वबुद्धि करता है; वह आत्मा दुःख के बीजरूप आठ प्रकार के कर्मों को पुनः बाँधता है।
जो आत्मा कर्म के फल का वेदन करता हुआ ऐसा जानता-मानता है कि मैंने कर्मफल किया; वह आत्मा दुःख के बीजरूप आठ प्रकार के कर्मों को पुनः बाँधता है। ___ कर्म के फल का वेदन करता हुआ जो आत्मा सुखी-दुःखी होता है; वह आत्मा दुःख के बीजरूप आठ प्रकार के कर्मों को बाँधता है।
ज्ञानादन्यत्रेदमहमिति चेतनं अज्ञानचेतना । सा द्विधा - कर्मचेतना कर्मफलचेतना च। तत्र ज्ञानादन्यत्रेदमहं करोमीति चेतनं कर्मचेतना; ज्ञानादन्यत्रेदं वेदयेऽहमिति चेतनं कर्मफलचेतना।
सा तु समस्तापि संसारबीजं; संसारबीजस्याष्टविधकर्मणो बीजत्वात् । ततो मोक्षार्थिना पुरुषेणाज्ञानचेतनाप्रलयाय सकलकर्मसंन्यासभावनांसकलकर्मफलसंन्यासभावनांच नाटयित्वा स्वभावभूता भगवती ज्ञानचेतनैवैका नित्यमेव नाटयितव्या।
तत्र तावत्सकलकर्मसंन्यासभावनांनाटयति - ये तीनों गाथायें लगभग समान ही हैं। शेष बातें समान होने पर भी अन्तर मात्र इतना ही है कि
ल में एकत्व-ममत्व की बात है, दूसरी गाथा में कर्तृत्व की बात है और तीसरी गाथा में भोक्तत्व की बात है।
तीनों गाथाओं का तात्पर्य मात्र इतना ही है कि वेदन में आते हए कर्मफल में एकत्व-ममत्व एवं कर्तृत्व-भोक्तृत्व धारण करनेवाला आत्मा पुनः-पुन: कर्मबंधन को प्राप्त होता है।
आत्मख्याति में इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
“ज्ञानस्वभावी अपने आत्मा से भिन्न भावों में इसप्रकार चेतना - सोचना, जानना-मानना कि 'ये मैं हूँ' अज्ञानचेतना है। यह अज्ञानचेतना दो प्रकार की होती है - कर्मचेतना और कर्मफलचेतना।
इनमें ज्ञान (आत्मा) से अन्य भावों में ऐसा जानना-मानना कि 'मैं इनका कर्ता हूँ' - कर्मचेतना है और ऐसा मानना कि 'मैं इनका भोक्ता हूँ' - कर्मफलचेतना है।।
यह समस्त अज्ञानचेतना संसार की बीज है; क्योंकि संसार के बीजरूप जो ज्ञानावरणादि आठ कर्म हैं, यह अज्ञानचेतना उनका बीज है। इसलिए मोक्षार्थी पुरुष को इस अज्ञानचेतना के प्रलय के लिए, जड़मूल से उखाड़ फेंकने के लिए सम्पूर्ण कर्मों से संन्यास की भावना को और