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इसप्रकार है
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(रोला )
ज्ञान- चेतना शुद्ध ज्ञान को करे प्रकाशित । शुद्धज्ञान को रोके नित अज्ञान-चेतना ।। और बंध की कर्ता यह अज्ञान - चेतना ।
यही जान चेतो आतम नित ज्ञान-चेतना ।। २२४ ।।
समयसार
यह ज्ञानस्वभावी भगवान आत्मा ज्ञान की निरन्तर संचेतना से अत्यन्त शुद्धरूप में प्रकाशित होता है और अज्ञान की संचेतना से बंध दौड़ता हुआ आकर ज्ञानस्वभावी आत्मा की शुद्धता को रोक लेता है।
तात्पर्य यह है कि यदि बंध को रोकना है और शुद्धज्ञान को प्रकाशित करना है तो ज्ञान संचेतना को निरन्तरता प्रदान करो। यही एक मार्ग है।
वेदतो कम्मफलं अप्पाणं कुणदि जो दु कम्मफलं । सो तं पुणो वि बंधदि बीयं दुक्खस्स अट्ठविहं ।। ३८७ ।। वेदंतो कम्मफलं मए कदं मुणदि जो दु कम्मफलं । सो तं पुणो वि बंधदि बीयं दुक्खस्स अट्ठविहं ।। ३८८ ।। वेदंतो कम्मफलं सुहिदो दुहिदो य हवदि जो चेदा । सो तं पुणो वि बंधदि बीयं दुक्खस्स अट्ठविहं ।। ३८९ ।। वेदयमान: कर्मफलमात्मानं करोति यस्तु कर्मफलम् । स तत्पुनरपि बध्नाति बीजं दुःखस्याष्टविधम् ।।३८७।। वेदयमान: कर्मफलं मया कृतं जानाति यस्तु कर्मफलम् ।
स तत्पुनरपि बध्नाति बीजं दुःखस्याष्टविधम् । । ३८८ ।। वेदयमान: कर्मफलं सुखितो दुःखितश्च भवति यश्चेतयिता । स तत्पुनरपि बध्नाति बीजं दुःखस्याष्टविधम् ।। ३८९।।
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि ज्ञानचेतना मोक्षमार्ग है और कर्मचेतना और कर्मफलचेतनारूप अज्ञानचेतना संसार का मार्ग है।
इसलिए हमें कर्मचेतना और कर्मफलचेतनारूप अज्ञानचेतना से मुक्त होकर ज्ञानचेतनारूप ही निरन्तर प्रवर्तना चाहिए ।
जो बात विगत कलशों में कही गई है; अब उसी बात को गाथाओं में कहते हैं, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है
( हरिगीत )
जो कर्मफल को वेदते निजरूप मानें करमफल ।