________________
सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
को दूर रखता है, वह आत्मा प्रतिक्रमण है।
जिस भाव से भविष्यकालीन शुभाशुभकर्म बँधता है, उस भाव से निवृत्त होनेवाला आत्म प्रत्याख्यान है ।
४९५
वर्तमानकालीन उदयागत अनेकप्रकार के विस्तारवाले शुभाशुभकर्मों के दोष को चेतनेवालाछोड़नेवाला आत्मा आलोचना है।
जो सदा प्रत्याख्यान करता है, सदा प्रतिक्रमण करता है और सदा आलोचना करता है; वह आत्मा वस्तुत: चारित्र है ।
उक्त गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार व्यक्त किया गया है
-
“जो आत्मा पुद्गलकर्म के विपाक से हुए भावों से स्वयं को छुड़ाता है, दूर रखता है; वह आत्मा उन भावों के कारणभूत पूर्वकर्मों का प्रतिक्रमण करता हुआ स्वयं ही प्रतिक्रमण है, वही
कर्म प्रतिक्रामन् स्वयमेव प्रतिक्रमणं भवति । स एव तत्कार्यभूतमुत्तरं कर्म प्रत्याचक्षाण: प्रत्याख्यानं भवति । स एव वर्तमानं कर्मविपाकमात्मनोऽत्यंतभेदेनोपलभमानः आलोचना भवति ।
एवमयं नित्यं प्रतिक्रामन्, नित्यं प्रत्याचक्षाणो, नित्यमालोचयंश्च, पूर्वकर्मकार्येभ्य उत्तरकर्मकारणेभ्यो भावेभ्योऽत्यंतं निवृत्तः, वर्तमानं कर्मविपाकमात्मनोऽत्यंतभेदेनोपलभमानः, स्वस्मिन्नेव खलु ज्ञानस्वभावे निरंतरचरणाच्चारित्रं भवति । चारित्रं तु भवन् स्वस्य ज्ञानमात्रस्य चेतनात् स्वयमेव ज्ञानचेतना भवतीति भावः ।
( उपजाति )
ज्ञानस्य संचेतनयैव नित्यं प्रकाशते ज्ञानमतीव शुद्धम् । अज्ञानसंचेतनया तु धावन् बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि बंध: ।। २२४ । ।
आत्मा उन भावों के कार्यभूत उत्तरकर्मों का प्रत्याख्यान करता हुआ स्वयं ही प्रत्याख्यान है और वही आत्मा वर्तमान कर्मविपाक को अपने से भिन्न अनुभव करता हुआ आलोचना है ।
इसप्रकार वह आत्मा सदा प्रतिक्रमण करता हुआ, सदा प्रत्याख्यान करता हुआ और सदा आलोचना करता हुआ पूर्वकर्मों के कार्यरूप और उत्तरकर्मों के कारणरूप भावों से अत्यन्त निवृत्त होता हुआ और वर्तमान कर्मविपाक को अपने से अत्यन्त भिन्न अनुभव करता हुआ अपने में ही, अपने ज्ञानस्वभाव में ही निरन्तर चरने से, लीन रहने से चारित्र है ।
इसप्रकार चारित्रस्वरूप होता हुआ आत्मा स्वयं को ज्ञानमात्र चेतनारूप अनुभव करता है; इसलिए स्वयं ही ज्ञानचेतना है - ऐसा आशय है।'
""
इसप्रकार इन गाथाओं में यही कहा गया है कि निश्चय प्रतिक्रमण, निश्चय प्रत्याख्यान और निश्चय आलोचना तो भूत, भविष्य और वर्तमान- तीनों काल संबंधी शुभाशुभभावों से निवृत्त होकर, अपने ज्ञानस्वभाव में वर्तना, रमना, स्थिर होना ही है और यही निश्चय चारित्र है, जो सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वक होता है। अतः एकमात्र करने योग्य कार्य तो आत्मज्ञानपूर्वक आत्मरमणता ही है।
अब आगामी गाथाओं के भाव को बतानेवाला कलशकाव्य कहते हैं; जिसका पद्यानुवाद