SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 513
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४९४ समयसार इसप्रकार आगामी गाथाओं के भाव की सूचना देनेवाले इस कलश में यही कहा गया है कि प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचना के माध्यम से भूत, भविष्य और वर्तमानकालीन कर्मों से रहित एवं अपने स्वभाव का नित्य स्पर्श करनेवाले ज्ञानीजन चारित्र के बल से कर्मचेतना और कर्मफलचेतना से रहित होकर केवलज्ञानमयी साक्षात् ज्ञानचेतना को प्राप्त होते हैं। जो बात विगत कलश में कही गई है; उसी बात को अब गाथाओं द्वारा स्पष्ट करते हैं, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) शुभ-अशुभ कर्म अनेकविध हैं जो किये गतकाल में। उनसे निवर्तन जो करे वह आतमा प्रतिक्रमण है ।।३८३।। कम्मं जं सुहमसुहं जम्हि य भावम्हि बज्झदि भविस्सं। तत्तो णियत्तदे जो सो पच्चक्खाणं हवदि चेदा ।।३८४।। जं सुहमसुहमुदिण्णं संपडि य अणेयवित्थरविसेसं । तं दोसं जो चेददि सो खलु आलोयणं चेदा॥३८५।। णिच्चं पच्चखाणं कुव्वदि णिच्चं पडिक्कमदि जो य। णिच्चं आलोचेयदि सो हु चरितं हवदि चेदा॥३८६।। कर्म यत्पूर्वकृतं शुभाशुभमनेकविस्तरविशेषम् । तस्मान्निवर्तयत्यात्मानं तु य: स प्रतिक्रमणम् ।।३८३।। कर्म यच्छुभमशुभं यस्मिंश्च भावे बध्यते भविष्यत् । तस्मान्निवर्तते यः स प्रत्याख्यानं भवति चेतयिता ।।३८४।। यच्छुभमशुभमुदीर्णं संप्रति चानेकविस्तरविशेषम् । तं दोषं यः चेतयते स खल्वालोचनं चेतयिता ।।३८५।। नित्यं प्रत्याख्यानं करोति नित्यं प्रतिक्रामति यश्च । नित्यमालोचयति स खलु चरित्रं भवति चेतयिता ।।३८६।। यः खलु पुद्गलकर्मविपाकभवेभ्यो भावेभ्यश्चेतयितात्मानं निवर्तयति, स तत्कारणभूतं पूर्वं बँधेगे जिस भाव से शुभ-अशुभ कर्म भविष्य में। उससे निवर्तन जो करे वह जीव प्रत्याख्यान है॥३८४।। शुभ-अशुभ भाव अनेकविध हो रहे सम्प्रति काल में। इस दोष का ज्ञाता रहे वह जीव है आलोचना ।।३८५।। जो करें नित प्रतिक्रमण एवं करें नित आलोचना। जो करें प्रत्याख्यान नित चारित्र हैं वे आतमा ।।३८६।। जो पूर्वकाल में किये गये अनेकप्रकार के ज्ञानावरणादि शुभाशुभकर्मों से स्वयं के आत्मा
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy