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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
४९१ कहते कि तू हमें जान और आत्मा भी बुद्धि के विषय में आये हए द्रव्यों को ग्रहण करने नहीं जाता।
ऐसा जानकर भी यह मूढ़ जीव उपशमभाव को प्राप्त नहीं होता और कल्याणकारी बुद्धि को - सम्यग्ज्ञान को प्राप्त न होता हुआ स्वयं परपदार्थों को ग्रहण करने का मन करता है। इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - “आचार्य अमृतचन्द्र पहले द्रष्टान्त पर घटित करके वस्तुस्थिति स्पष्ट करते हैं - जिसप्रकार इस जगत में देवदत्त नामक पुरुष यज्ञदत्त नामक पुरुष को हाथ पकड़कर किसी कार्य में लगाता है; उसप्रकार घट-पटादि बाह्य पदार्थ दीपक को स्वप्रकाशन (बाह्य पदार्थों को प्रकाशित करने के कार्य) में नहीं लगाते अर्थात् ऐसा नहीं कहते कि तू हमें प्रकाशित कर
न प्रदीपं प्रयोजयति, न च प्रदीपोप्यय:कांतोपलकृष्टा: सूचीवत् स्वस्थानात्प्रच्युत्य तं प्रकाशयितुमायाति; किंतु वस्तुस्वभावस्य परेणोत्पादयितुमशक्यत्वात् परमुत्पादयितुमशक्तत्वाच्च यथा तदसन्निधाने तथा तत्सन्निधानेऽपि स्वरूपेणैव प्रकाशते।
स्वरूपेणैव प्रकाशमानस्य चास्य वस्तुस्वभावादेव विचित्रां परिणतिमासादयन् कमनीयोऽकमनीयो वा घटपटादिर्न मनागपि विक्रियायै कल्प्यते।
तथा बहिराः शब्दो, रूपं, गंधो, रसः, स्पर्शो, गुणद्रव्ये च, देवदत्तो यज्ञदत्तमिव हस्ते गृहीत्वा, ‘मां शृणु, मां पश्य, मां जिघ्र, मां रसय, मां स्पृश, मां बुध्यस्व' इति स्वज्ञाने नात्मानं प्रयोजयंति, न चात्माप्यय:कांतोपलकृष्टादय:सूचीवत् स्वस्थानात्प्रच्युत्य तान् ज्ञातुमायाति; किंतु वस्तुस्वभावस्य परेणोत्पादयितुमशक्यत्वात् परमुत्पादयितुमशक्यत्वाच्च यथा तदसन्निधाने तथा तत्सन्निधानेऽपि स्वरूपेणैव जानीते।।
स्वरूपेणैव जानतश्चास्य वस्तुस्वभावादेव विचित्रां परिणतिमासादयंत: कमनीया अकमनीया वा शब्दादयो बहिरा न मनागपि विक्रियायै कल्प्येरन् । एवमात्मा प्रदीपवत् परं प्रति उदासीनो नित्यमेवेति वस्तुस्थितिः, तथापि यद्रागद्वेषौ तदज्ञानम् ।।३७३-३८२॥
और दीपक भी चुम्बक से खींची गई लोहे की सुई के समान अपने स्थान से च्युत होकर घटपटादि बाह्य पदार्थों को प्रकाशित करने नहीं जाता; परन्तु न तो वस्तुस्वभाव दूसरों से उत्पन्न किया जा सकता है और न दूसरों को उत्पन्न ही कर सकता है; इसलिए जिसप्रकार दीपक बाह्य पदार्थों के समीप न होने पर भी उन्हें अपने स्वरूप से ही प्रकाशता है; उसीप्रकार बाह्य पदार्थों की समीपता में भी उन्हें अपने स्वरूप से ही प्रकाशता है।
इसीप्रकार वस्तुस्वभाव से ही विभिन्न परिणति को प्राप्त होते हुए मनोहर और अमनोहर घट-पटादि बाह्यपदार्थों को अपने स्वरूप से प्रकाशित करते हुए दीपक में वे बाह्य पदार्थ किंचित्मात्र भी विक्रिया उत्पन्न नहीं करते।
अब इसी बात को दार्टान्त पर घटित करते हैं - जिसप्रकार देवदत्त यज्ञदत्त नामक पुरुष को हाथ पकड़कर किसी कार्य में लगाता है; उसप्रकार शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श तथा गुण और द्रव्यरूप बाह्य पदार्थ आत्मा को स्वज्ञान