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समयसार में (बाह्यपदार्थों को जानने के कार्य में) नहीं लगाते अर्थात् बाह्यपदार्थ आत्मा से ऐसा नहीं कहते कि तू हमें सुन, देख, सूंघ, चख, छू और जान और आत्मा भी चुम्बक से खींची गई लोहे की सुई के समान अपने स्थान से च्युत होकर उन बाह्य पदार्थों को जानने नहीं जाता; परन्तु न तो वस्तुस्वभाव दूसरों से उत्पन्न किया जा सकता है और न दूसरों को उत्पन्न ही कर सकता है; इसलिए जिसप्रकार आत्मा बाह्यपदार्थों के समीप न होने पर भी उन्हें अपने स्वरूप से ही जानता है; उसीप्रकार बाह्यपदार्थों की समीपता में भी उन्हें अपने स्वरूप से ही जानता है।
इसप्रकार वस्तुस्वभाव से ही विभिन्न परिणति को प्राप्त होते हए मनोहर और अमनोहर घटपटादि बाह्यपदार्थों को अपने स्वरूप से ही जानते हुए आत्मा में वे बाह्यपदार्थ किंचित्मात्र भी विक्रिया उत्पन्न नहीं करते।
इसप्रकार दीपक की भाँति आत्मा भी पर के प्रति उदासीन ही है। यद्यपि ऐसी वस्तुस्थिति सदा ही रहती है; तथापि जो राग-द्वेष होता है, वह अज्ञान ही है, अज्ञान का ही फल है।"
(शार्दूलविक्रीडित ) पूर्णेकाच्युतशुद्धबोधमहिमा बोधो न बोध्यादयं यायात्कामपि विक्रियां तत इतो दीपः प्रकाश्यादिव। तद्वस्तुस्थितिबोधवंध्यधिषणा एते किमज्ञानिनो
रागद्वेषमयी भवंति सहजां मुंचन्त्युदासीनताम् ।।२२२।। गाथाओं और उनकी टीका में दो बातों पर सतर्क सोदाहरण प्रकाश डाला गया है। जो इसप्रकार
१. न तो बाह्य ज्ञेयपदार्थ आत्मा से यह कहते हैं कि तुम हमें जानो।
२. और न आत्मा भी उन्हें जानने के लिए उनके पास जाता है; वह तो समीपवर्ती और दूरवर्ती पदार्थों को अपने स्वभाव से ही सहजभाव से जानता है।
इसप्रकार यह आत्मा और परद्रव्यों के बीच होनेवाला एक सहज ज्ञेय-ज्ञायक संबंध है; इसमें परस्पर किसी भी प्रकार की पराधीनता नहीं है।
तात्पर्य यह है कि न तो परपदार्थ आत्मा को विकार कराते हैं और न आत्मा ही उनमें कुछ फेरफार करता है। पर को जानना विकार का कारण नहीं है और उनका ज्ञान में जानने में आना पराधीनता नहीं है।
इसप्रकार इन गाथाओं में यही कहा गया है कि जब ज्ञेयपदार्थ स्वयं को जानने के लिए आत्मा को बाध्य नहीं करते और आत्मा भी उन्हें जानने के लिए उनके पास नहीं जाता; सहजभाव से ही ज्ञेयपदार्थ जानने में आ जाते हैं, आते रहते हैं। __ऐसी स्थिति होने पर भी न जाने क्यों कुछ अज्ञानीजन उन्हें जानने के लिए आकुलित होते रहते हैं और कुछ लोग ज्ञेयों को जान लेने मात्र से अपराधबोध से ग्रस्त हो जाते हैं - यह बड़े आश्चर्य की बात है; क्योंकि परज्ञेयों को जानने और नहीं जानने - इन दोनों स्थितियों के प्रति सहजभाव धारण करना ही मार्ग है।
अब आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र इसी भाव का पोषक कलश काव्य लिखते हैं; जिसका