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समयसार जो लोग राग की उत्पत्ति में परद्रव्य को ही मूलकारण मानते हैं अर्थात् परद्रव्य के निमित्त से ही राग उत्पन्न होता है - ऐसा मानते हैं; शुद्धज्ञान से रहित वे अंधबुद्धि लोग मोहनदी को पार नहीं कर सकते।
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि राग-द्वेषरूप विकारी भावों की उत्पत्ति में परद्रव्यों का कोई दोष नहीं है; परद्रव्य इस आत्मा को बलात् राग-द्वेषरूप नहीं परिणमाते; अपितु यह आत्मा ही स्वयं अपने अज्ञानभाव के कारण राग-द्वेषरूप परिणमित होता है तथा जब यह आत्मा स्वयं अपने अज्ञान के कारण राग-द्वेषरूप परिणमित होता है; तब परद्रव्य उसमें सहजभाव से निमित्तमात्र होते हैं। परद्रव्यों की निमित्तता देखकर उन्हें ही राग-द्वेष का कर्ता मान लेना स्वयं अज्ञानभाव है और यह अज्ञानभाव ही मुख्यत: बंधन का कारण है।
प्रिंदिदसंथुदवयणाणि पोग्गला परिणमंति बहुगाणि। ताणि सुणिदूय रूसदि तूसदि य पुणो अहं भणिदो।।३७३।। पोग्गलदव्वं सद्दत्तपरिणदं तस्स जदि गुणो अण्णो। तम्हा ण तुमं भणिदो किंचि वि किं रूससि अबुद्धो॥३७४।। असुहो सुहो व सद्दो ण तं भणदि सुणसु मं ति सो चेव। पण य एदि विणिग्गहिर्बु सोदविसयमापदं सई॥३७५।। असुहं सुहं व रूवं ण तं भणदि पेच्छ मं ति सो चेव। ण य एदि विणिग्गहिदुं चक्खुविसयमागदं रूवं ।।३७६।। असुहो सुहो व गंधो ण तं भणदि जिग्घ मं ति सो चेव। ण य एदि विणिग्गहिदुं घाणविसयमागदं गंधं ॥३७७।। असुहो सुहो व रसो ण तं भणदि रसय मंति सो चेव। ण य एदि विणिग्गहिदुं रसणविसयमागदं तु रसं ॥३७८।।
जो बात विगत कलशों में कही गई है; अब उसी की पुष्टि गाथाओं द्वारा करते हैं, गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(रोला) स्तवन निन्दा रूप परिणत पुद्गलों को श्रवण कर। मुझको कहे यह मान तोष-रु-रोष अज्ञानी करें ।।३७३।। शब्दत्व में परिणमित पुद्गल द्रव्य का गुण अन्य है। इसलिए तुम से ना कहा तुष-रुष्ट होते अबुध क्यों?।।३७४।। शुभ या अशभ ये शब्द तुझसे ना कहें कि हमें सुन ।