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________________ ४८७ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार क्रोध क्यों करें?" इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि जिसप्रकार घड़ा अपनी उपादानरूप मिट्टी का ही कार्य है और मिट्टीरूप ही है; उसे बनाने के विकल्प से परिणमित कुम्हाररूप नहीं, निमित्तरूप नहीं; उसीप्रकार से रागादिभाव भी अपने उपादानरूप चेतन आत्मा के ही कार्य हैं, चेतनरूप ही हैं; पररूप नहीं, अचेतनरूप नहीं, अचेतन कर्मरूप नहीं; निमित्तरूप नहीं। इसप्रकार जब यह निर्णय पक्का हो जाता है तो फिर निमित्तरूप परद्रव्यों पर कोप करने का कोई कारण शेष नहीं रह जाता है। इसलिए निष्कर्ष के रूप में आचार्यदेव कहते हैं कि जब हमें कोई परद्रव्य हमारे सुख-दु:ख और राग-द्वेष का कारण दिखाई ही नहीं देता तो फिर हम उन परद्रव्यों पर कोप क्यों करें? (मालिनी) यदिह भवति रागद्वेषप्रसूति: कतरदपि परेषां दूषणं नास्ति तत्र । स्वयमयमपराधी तत्र सर्पत्यबोधा भवतु विदितमस्तंयात्वबोधोऽस्मि बोधः ।।२२०।। (रथोद्धता) रागजन्मनि निमित्ततां परद्रव्यमेव कलयंति ये तु ते । उत्तरंति न हि मोहवाहिनीं शुद्धबोधविधुरांधबुद्धयः ।।२२१।। तात्पर्य यह है कि हम अपने सुख-दुःख के कारण पर में न खोजकर स्वयं में ही खोजें; स्वयं को ही जाने-माने और स्वयं में ही समा जायें - यही मार्ग है। अब गाथा और टीका के भाव के पोषक तथा आगामी गाथाओं की उत्थानिकारूप दो कलश काव्य लिखते हैं; जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (रोला) राग-द्वेष पैदा होते हैं इस आतम में। उसमें परद्रव्यों का कोई दोष नहीं है ।। यह अज्ञानी अपराधी है इनका कर्ता। यह अबोध हो नष्ट कि मैं तो स्वयं ज्ञान हूँ।।२२०।। अरे राग की उत्पत्ति में परद्रव्यों को। ___ एकमात्र कारण बतलाते जो अज्ञानी ।। शुद्धबोध से विरहित वे अंधे जन जग में। - अरे कभी भी मोहनदी से पार न होंगे ।।२२१।। इस आत्मा में जो राग-द्वेषरूप दोषों की उत्पत्ति होती है, उसमें परद्रव्यों का कोई दोष नहीं है; उसमें मूल अपराधी तो अज्ञान ही है। इसप्रकार विदित होने पर जब अज्ञान अस्त हो जाये, तब फिर तो मैं ज्ञान ही हूँ।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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