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समयसार है, विभाव नहीं। परज्ञेयों के जानने से न तो ज्ञान ज्ञेयरूप होता है और न ज्ञेय ज्ञानरूप होते हैं; दोनों पूर्णत: असंपृक्त ही रहते हैं। अत: पर को जानने में अपराधबोध होने की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है।
अब आगे की गाथाओं की सूचना देनेवाला कलशकाव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
दसणणाणचरित्तं किंचि वि णत्थि दु अचेदणे विसए। तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तेसु विसएसु ।।३६६।। दंसणणाणचरित्तं किंचि वि णत्थि दु अचेदणे कम्मे। तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तम्हि कम्मम्हि ॥३६७।। दंसणणाणचरित्तं किंचि वि णत्थि दु अचेदणे काए। तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तेसु काएसु।।३६८।। णाणस्स दसणस्स य भणिदो घादो तहा चरित्तस्स । ण वि तहिं पोग्गलदव्वस्स को वि घादो दु णिद्दिट्टो॥३६९।।
(रोला) तबतक राग-द्वेष होते हैं जबतक भाई !
ज्ञान-ज्ञेय का भेद ज्ञान में उदित नहीं हो।। ज्ञान-ज्ञेय का भेद समझकर राग-द्वेष को,
मेट पूर्णत: पूर्ण ज्ञानमय तुम हो जाओ ।।२१७।। जबतक ज्ञान ज्ञानरूप न हो जाये और ज्ञेय ज्ञेयरूप न हो जाये; तबतक ही राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं। इसलिए यह ज्ञान अज्ञानभाव को दूर करके ज्ञानरूप हो कि जिससे भाव-अभाव (राग-द्वेष) को रोकता हुआ पूर्ण स्वभाव प्रगट हो जाये।
इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि जबतक ज्ञान और ज्ञेयों में अन्तर ख्याल में नहीं आता अर्थात् ज्ञेयों को जानते हुए भी ज्ञान ज्ञेयरूप नहीं होता और ज्ञेय ज्ञानरूप नहीं होते - यह बात ख्याल में नहीं आती; तबतक अज्ञानभाव रहता है और जबतक अज्ञानभाव रहता है; तबतक राग-द्वेष उत्पन्न होते ही रहते हैं। अत: ज्ञेयों को जानते हुए भी ज्ञान की ज्ञेयों से भिन्नता जानना बहुत जरूरी है। यह भिन्नता जान लेने पर राग-द्वेष का अभाव होता जाता है और एक दिन रागद्वेष का पूर्णतः अभाव होकर केवलज्ञान हो जाता है।
( हरिगीत ) ज्ञान-दर्शन-चरित ना किंचित् अचेतन विषय में। इसलिए यह आतमा क्या कर सके उस विषय में ।।३६६।। ज्ञान-दर्शन-चरित ना किंचित् अचेतन कर्म में। इसलिए यह आतमा क्या कर सके उस कर्म में ।।३६७।।